Book Title: Keynote Address of Dr Sagarmal Jain at Calcutta
Author(s): Mahadeolal Saraogi
Publisher: Mahadeolal Saraogi

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Page 49
________________ 15 करना चाहते हैं तो हमें भौतिकवादी दृष्टि का परित्याग कर उस आध्यात्मिक द्वष्टि का विकास करना होगा जिसके अनुसार भौतिक सख-सुविधाओं की उपलब्धि ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य नहीं है। हमें यह मानना होगा कि दहिक एवं आर्थिक मूल्यों से परे अन्य उध्य मूल्य भी है । आध्यात्मिक दृष्टि अन्य कुछ नहीं, अपितु इन उच्च मूल्यों की स्वीकृति है । जैन धर्म के अनुसार अध्यात्म काअर्थ है पदार्थ को परम मूल्य न मानकर आत्मा को परम मूल्य मानना । पदार्थवादी द्वष्टि मानवीय दुःखों और सुखो का आधार “वस्तु या बाह्य परिस्थिति को मानती है, उसके अनुसार सुख-दुःख वस्तुगत तथ्य है । अतः भौतिकवादी मानप्त सुख की लालसा में वस्तुओं के पीछे दौडता है और उनके संगह हेतु स्तेय, शोषण, एवं संघर्ष जती सामाजिक बुराइयों को जन्म देता है । इसके विपरीत जैन अध्यात्म हमे यह सिखाता है कि सुख-दुःख का मूल केन्द्र वस्तु में न होकर आत्मा में है । महावीर कहते हैं - सख-दुःख आत्मवृत है । बाहर न कोई शत्रु है और न कोई मित्र । आत्मा ही अपना मित्र और शव है । सुप्रस्थित आत्मा मित्र है और दुःप्रस्थिा आत्मा भूत्र है । अतः सख-दुःख की खोज पदार्थों में न कर आत्मा में करना है। जैन आचार्य कहते हैं कि यह ज्ञान-दर्शन स्वस्म शाश्वत आत्म तत्व ही अपना है । ष सभी संयोगजन्य पदार्थ आत्मा से भिन्न हैं, अपने नहीं है । इन सांयोगिक उपलब्धियों में ममत्व बद्धि दःख-परम्परा का कारण है, अत: आनन्द की प्राप्ति हेतु इनके प्रति ममत्व बुदि का सर्वथा त्याग करो । संक्षेप में देहादि आत्त र पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि का त्याग और भौतिक उपलब्धियों के स्थान पर आत्मोपलब्धि अर्थात् वीतराग दशा की उपलब्धि को जीवन का निःश्रेयस स्वीकार करना अध्यात्म विद्या और जन धर्म का मूल तत्व है और यही मानव जाति के मंगल का मार्ग है । क्यों कि इसी के द्वारा आधुनिक मानस को आन्तरिक एवं बाह्य तनावों से मुक्त कर निराफुल बनाया जा सकता है । क्या जनधर्म जीवन का निषेध सिखाता है : जैन धर्म में तप-त्याग की जो महिमा गायी गई है उसके आधार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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