Book Title: Keynote Address of Dr Sagarmal Jain at Calcutta Author(s): Mahadeolal Saraogi Publisher: Mahadeolal SaraogiPage 35
________________ परमादरणीय स्वामी लोकेश्वरानन्द जी, रामकृष्ण मिशन के अन्य स्वामीगण, श्री गोविन्द लाल जी सरावगी और उनके पारिवारिक जन, सज्जनों और देवियों मैं रामकृष्ण मिशन इन्स्टीच्यूट आफ कल्चर और महादेवताल सरावगी पारमार्थिक न्यास के अधिकारियों का कृतज्ञ हूं कि उन्होंने मुझे उक्त न्यास के सहयोग से इस संस्थान में प्रारम्भ की गई जैन विद्या शोधकार्य योजना के उद्घाटन हेतु आमंत्रित किया। वस्तुत: यह अवसर इसलिये और अधिक महत्त्वपूर्ण है कि रामकृष्ण मिशन संस्कृति संस्थान जैसी सुनियोजित रूप से कार्य करने वाली संस्था के विद्यासम्बन्धी शोध योजना को अपने हाथों में ले रही है। सम्भव है कि एक अर्जिन संस्थान द्वारा जैनविद्या का कार्य करना कुछ लोगों को आश्चर्यजनक लगे, किन्तु मेरी दृष्टि में इस संस्थान के द्वारा इस योजना का संचालन, इसलिए अधिक महत्वपूर्ण है, कि इससे भारतीय संस्कृति का एक समन्वित स्वरूप हमारे सामने आ सकेगा। मेरा मानना है कि प्राकृत और जैन विद्या के क्षेत्र में किये जाने वाले शोध कार्य भारतीय संस्कृति को सम्यक्तया और सम्पूर्ण रूप से समझने के लिये अतिआवश्यक है। भारतीय संस्कृति एक संविलष्ट संस्कृति है । उसे हम विभिन्न चहारदीवारियों में अवरुद्ध कर कभी भी सम्यक प्रकार से नहीं समझ सकते है, उसको खण्ड-खण्ड में विभाजित करके देखने में उसकी आत्मा ही मर जाती है। जैसे शरीर को खण्ड-खण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया- शक्ति को नहीं उसकी मूल आत्मा को समझा जा सकता है, वैसे ही भारतीय संस्कृति को खण्ड-खण्ड करके नहीं समझा जा सकता है। भारतीय संस्कृति को हम तभी सम्पूर्ण रूप से समझ सकते हैं, जब उसके विभिन्न घटकों अर्थात जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म दर्शन का समन्वित एवं सम्यक् अध्ययन न कर लिया जाय । बिना उसके संयोजित घटकों के ज्ञान के उसका सम्पूर्णता में ज्ञान सम्भव ही नहीं है। एक इंजन की प्रक्रिया को भी सम्यक प्रकार से समझने के लिए न केवल उसके विभिन्न घटकों अर्थात् कल-पुर्जो का ज्ञान आवश्यक होता है, अपितु उनके परस्पर संयोजित स्म को भी देखना होता है। अतः हमें स्पष्ट रूप से इस तथ्य को समझ लेना चाहिए कि भारतीय संस्कृति के अध्ययन एवं शोध के क्षेत्र में अन्य सहवर्ती परम्पराओं और उनके पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन के बिना कोई भी शोध परिपूर्ण नहीं हो सकती है। धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित नहीं होते वे अपने देशकाल और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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