Book Title: Kashaypahud Sutra Author(s): Gundharacharya, Sumeruchand Diwakar Shastri Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 4
________________ ( ३ } ६ सिद्धार्थ, वृतिषे, विजय, ६ बुद्धिल, १० गंगदेव, ११ धर्म सेन | इन मुनीन्द्रों का एक सौ तिरासी वर्ष प्रमाणकाल कहा गया है। तिलायपरसत्ति तथा श्रुतावतार कथा में विशाखाचार्य का नाम क्रमशः विशाख तथा विशाखदत्त आया है। श्रुतावतार कथामें बुद्धिल के स्थान में बुद्धिमान शब्द आया है। तिस्तोयपति में धर्मसेन की जगह सुधर्म नाम दिया गया है। इन सुनिराजों के विषय में गुणभद्राचार्य ने लिखा है कि ये "द्वादशांगार्थ - कुशलादशपूर्वराश्च ते" ( उ. पु. पर्व ७६. श्लोक ५२३ ) द्वादशांग के अर्थ में प्रवीण तथा दस पूर्ववर थे । इनके अनंतर एकादश अंग के ज्ञाता दो सौ बीस वर्ष में नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु ध्रुवसेन और कंस ये पंच महाज्ञानी हुए । श्रुतावतार कथा में ध्रु सेन की जगह 'द्र ुमसेन' शब्द आया है। जयधवला में जयपाल को 'जसपाल ' तथा हरिबंशपुराण में 'यशपाल' कहा गार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज इनके पश्चात् श्रुतज्ञान को परंपरा और क्षीण होती गई और आचारांग के ज्ञाता सुभद्र, यशोभद्र यशोबाहु और लोहाचार्य एक सौ अठारह वर्ष में हुए। तावतार कथा में यशोभद्र की जगह अभयभद्र तथा यशोबाहु के स्थान में जयबाहु नाम आया है । महावीर भगवान के निर्वाण के पश्चात् अनुबद्ध क्रम से उपरोक्त अट्ठाईस महाज्ञानी मुनीन्द्र छह सौ तिरासी वर्ष ( ६ + १०० + १८३ + २२० + ११८= ६३३ ) में हुए । यह कथन क्रमबद्ध परंपरा की अपेक्षा किया गया है । तातार कथा में लोहाचार्य के पश्चात् विनयधर, श्रीदत्त. शिवदत्त, श्रद्दत्त, श्रवलि तथा माघनंदि इन छह महा पुरुषों को अंग तथा पूर्व के एक देश के ज्ञाता कहा है। अन्य ग्रंथों में ये नाम नहीं दिए गए हैं । संभवतः ये श्राचार्य अनुबद्ध परंपरा के कम में नहीं होंगे । इनके युग में और भी अक्रमबद्ध परंपरावाले मुनोश्वर रहे होंगे | I गुणधर स्थविर - जयधवला टीका में लिखा है, "तदो अंगपुत्रा मेगसो चैत्र इरिय- परम्पराए आगंतू गुणहराइस्यिं संपत्ती" ( जय. ध. भाग १ पृ. ८७ ) लोहाचार्य के पश्चात् अंग और पूर्वी का एक देश ज्ञान आचार्य परंपरा से आकर गुणधर आचार्य को प्राप्त हुआ। गुणधर श्राचार्य के समान धरसेन आचार्य भी धवलादीका में अंग तथा पूर्वी के एक देश के ज्ञाता थे । लिखा है, "तो सम्बेसि - गंग-पुव्वाणमेग देखो आइरिय परम्परा । ए श्रागच्छमाणो धरसेनाइरियं संपत्तो" (१,६७ ) | आचार्य गुणधरPage Navigation
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