Book Title: Kashaypahud Sutra
Author(s): Gundharacharya, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 2
________________ प्रस्तावना धर्मग्ण-रंगभूमिः कारिपराजयकजय--लक्ष्मीः । निर्मोह-भटनिषेव्या क्षषकश्रेणी चिरं जयतात् ।। वह क्षपकसीर्शिकालपळभयालयांत सुविहिरसामर्स की रंगभूमि है, कमरूप शत्रु का पराजयकर अद्वितीय विजय लक्ष्मी तुल्य है. तथा जो मोह रहित-निर्मोही सुभट वीरों के द्वारा सेवनीय है । . इस भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में ऋषभनाथ आदि चौबीस सीथ करों के द्वारा दिव्यचति के माध्यम से सङ्कर्म की वैज्ञानिक देशना हुई । उनमें अंतिम धर्म देशना पश्चिम तीर्थकर महाश्रमण महात गहावीर वर्धमान भगवान द्वारा राजगृह के निकटवर्ती विपुलगिरि पर हुई थी । उनकी पावनवारणी को एक अंतमुहूर्त में अवधारणकर गौतम गोत्रधारी इंद्रभूति ने उसी समय चारह धंगरूप ग्रंथों की रचना की और गुणों से अपने समान श्री सुधर्मा स्वामी को उमका व्याख्यान किया। कुछ काल के अनंतर ईद्रभूति भट्टारक केवल ज्ञान को उत्पन्न करके और द्वादश वर्ष पर्यन्त केवली रूप से विहारकर मुक्त हुए । उत्तरपुराण में उनका निर्वाण स्थल विपुलगिरि कहा गया है । उसी दिन सुधर्मा स्थामी को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। गौतम स्वामी के समान जन्होंने द्वादश वर्ष पर्यन्त धर्मामृत की वर्षा करके निवाण लाभ लिया । उसी दिन जंबूस्वामो भट्टारक ने सर्वत्रता प्राप्त की। उन्होंने अड़तीस वर्ष पर्यन्त केवलीरूप से विहार करने के अनंतर मोक्ष पदवी प्राप्त की । इस उत्सपिणी काल के वे अंतिम अनुबद्ध केवली हुए | महाश्रमण महावीर के समवशरण में सात सौ केलियों का सद्भाव कहा गया है। उन केलियों ने अायु कर्म के क्षय होने पर मोन प्राप्त किया। उनके विषय में यह बात ज्ञातव्य है कि श्रोधर केवली ने सबके अन्त में कुडलगिरि से मोक्ष प्राप्त किया था • । यह कथन तिलोयपएणात्ति की इस गाथा से अवगत होता है : कुंडलगिरिम्मि चरिमो केवलणाणीसु सिरिधरी सिद्धो । चारणरिसीसु चग्मिी सुपास-चन्दाभिधाणो य ॥ति, प. ४.१४७९ मध्यप्रदेश के दमोह जिले से २२ माल दूरी पर कंडलपुर नाम का बाबन जिनालयों से अलंकृत सुन्दर तथा मनोरम पुण्य तीर्थ है। वहां पर्वत पर विद्यमान बड़े यात्रा की द्वादश फुट ऊंची पद्मासन भव्य

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