Book Title: Kashaypahud Sutra Author(s): Gundharacharya, Sumeruchand Diwakar Shastri Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 3
________________ स श्रुतज्ञान की परंपरा-भगवान महावीर ने मंगलमय धर्म की देशना की थी तथा सदों का निरूपण किया था। उन्हें अथकर्ता कहा गया है तथा गौतम स्वामी को प्रथको स्वीकार किया जयादा गुणभद्र स्वामी ने उत्तर पुराण में कहा है, कि गौतम गणधर द्वारा द्वादश अंगों की रचना पूर्व रात्रि में की गई थी और पूर्वो की रचना उन्होंने रात्रि के अतिम भाग में की थी। "अगानां ग्रंथसंदर्भ पूर्वराने व्यधाम्यहम् । पूर्वाणां पश्चिम भागे.....(७४-३७१, ३७२)। तिलोयपपत्ति में कहा है: "इय मूलततकत्ता सिरिवीरो इंदभूदिविष्पवगे । उवतंते कत्तारो अणुतते सेस-आइरिया ॥१८॥ इस प्रकार श्री वीर भगवान मूल तंत्रकर्ता, विशिरोमरिण इंद्रभूति उपतंत्रकर्ता तथा शेष आचार्य अनुतंत्रकर्ता हैं। छानुबद्ध केवली की अपेक्षा महावीर भगवान के निर्माण प्राप्त होने के पश्चात बासठ वर्ष पर्यन्त सर्वज्ञता का सूर्य विश्व को पूर्ण प्रकाश प्रदान करता हुआ अज्ञामतम का क्षय करता रहा। इसके पश्चात् विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन, भद्रबाह इन पंच श्रुतकेवलियों में सौ वर्ष का समय पूर्ण हुया । इस पंच श्रुतकेवलियों की गणना भी परिपाटी क्रम अर्थात अनुबद्ध रूप से की गयी, जो इस बात को सूचित करती है, कि यहां अपरिपाटी क्रम से पाये जाने चाले श्रुतके वलियों की विवक्षा नहीं की गई। तिलोयपरशान्ति तथा उत्तर पुराण में प्रथम श्र त केवली "विष्णु" को "नंदि" नाम से संकीर्तित किया गया है, | धवला, जयधवला, श्रुतावतार, हरिवंशपुराण में विष्णु" नाम श्राया है। पंच श्र तज्ञान पाथोधि-पारगामी महर्षियों के अनंतर एकादश मुनीश्वर ग्यारह अंग और दस पूर्व के पाठी हुए । उनके नाम पर इस प्रकार है--१. विशाखाचाय, २ पोष्ठिल, ३ क्षत्रिय, ४ जय, ५ नागसेन, प्रतिमा के बहिर्भाग में श्यामवर्णीय लगभग छह इंची चरणयुगल हैं । उनमें लिखा है, "कंडलगिरी श्रीधर स्वामी" । इससे यह स्वीकार करना उचित है, कि कंलगिरि अननुबद्ध केवली श्रीधर भगवान को निर्धारण भूमि है। अनुबद्ध अर्थात् क्रमबद्ध केवलियों में जंबूस्वामी अतिम केवली हुए तथा श्रक्रमबद्ध केलियों में श्रीधर स्वामी हुए, जिन्होंने कुण्डलगिरि से मोन प्राप्त किया । जंबूस्वामी का निर्माण स्थल उत्तरपुराण में राजगिरि का विपुलाचल पर्वत कहा गया है।Page Navigation
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