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Dt. 19-07-2018 4
“आपका ६-११-५९ का पत्र आज मिला । उसे पढ़कर दिल भर आया । आँखों से आँसू निकल पढ़े। प्यारे कीर्ति की बहुत याद आई। वह मुझे अपने प्रेम से स्पर्श करके चला गया। कैसी है यह प्रेम की रीत ?... शायद उसका प्रेम पारस पथ्थर की तरह था, वह हम लोगों को सिर्फ छूने ही आया था । अब उसे दिल की गुफा में ही देख सकूंगा, प्रताप ! वहाँ से वह नहीं भाग सकता। उसकी उज्जवल आत्मा को मेरा प्रेम प्रणाम । आप सब को प्रभु आश्वासन दे, यह गरीब बंदा ऐसे दुःख में क्या आश्वासन दे सकता है, चिरंजीव ?... आप का सहानुभूति में गुरुदयाल ।”
फिर पूज्य बालकोबाजी ने भी खुलीकांचन से उसकी आत्मा को श्रध्धांजलि अर्पित करते हुए
लिखा :
• कीर्ति स्मृति •
उरुलीकांचन, वाया पूना, ११-११-१९५९ "चि. कीर्ति के स्वर्गवास के समाचार बिलकुल ही अनपेक्षित मिले। कीर्ति की माता का तथा आपका दुःख मैं समझ सकता हूँ। परन्तु जन्म और मृत्यु ये दुःख के विषय नहीं हैं । प्रारब्धकर्म जहाँ ख़त्म होता है, वहाँ तुरन्त ही मृत्यु आती है। इसलिये कीर्ति का प्रारब्ध कर्म इस जन्म का पूर्ण हुआ और देह छोड़कर दूसरा जन्म लेकर अधूरा रहा प्रवास पूरा करने का कार्य उसका चालु होगा । "चि. कीर्ति यहाँ रहा था तब रोज़ हमारे साथ पाखाना (शौचालय) सफाई के लिये नियमित रूप से आता था और उस समय शा ढ़ाई घंटे चलनेवाला हमारा सफाई का काम वह पूर्ण करता था । एकबार शौच (मल) अधिक से अधिक संख्या में कौन उठाता है उसकी प्रतियोगिता (स्पर्धा) रखी थी उसमें उसने मेरी स्मृति के मुताबिक ४०० शौच उठाये थे और दूसरा नंबर आया था । श्र में रहकर सेवा करने का विचार उसने मुझे बताया था, परंतु मैंने उससे कहा था कि अभी पढ़ाई पूरी कर लो, फिर देखा जायगा ।
"उसने कलकत्ते में अपना शरीर घिस डाला । कीर्ति के जो गुण हैं उनका स्मरण कर उसके वियोग के दुःख को बिल्कुल भूलने का प्रयत्न करें।
"मेरी ओर से उसकी माता को सांत्वना दें और आप भी शांति बनाये रखें ।"
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• बालकोबा भावे स्व. कीर्ति अहमदाबाद में प्रज्ञाचक्षु पूज्य पंडितश्री सुखलालजी के परिचय में भी आया था । इस परिचय का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा :
सरित्कुंज आश्रमरोड, अहमदाबाद-१, दि. १०-११-१९५९
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" श्रीयुत् प्रतापभाई, घटित ।
पत्र सुना और गहरा दुःख हुआ। इन दिनों जहाँ देखो वहाँ अचानक मृत्यु, रोग, तंगी और ऐसी अनेक प्रकार की विषम स्थिति अनुभव में आती है। उसमें जब किसी परिचित के विषय में कुछ घटित होता है, तब संवेदन को आघात पहुंचता है। कीर्तिकान्त यहाँ आये और उनके मुख से कलकत्ते में उनकी रहनसहन आदि के विषय में सुना था तब मुझे लगा था कि यह तो जीवन जीने के लिये उसका ही क्षय हो रहा है ! तुम्हें या उसे मैंने किसी न किसी रूप में मेरा वह असर कह बताया हो ऐसा याद आता है । टायफाइड में एलोपैथिक डॉक्टर अनेकबार उल्टासुल्टा ही करते हैं, परन्तु जो बन चुका उसके विषय में अब अधिक सोचने से क्या लाभ ? माताजी को अकल्प्य आघात लगे.
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