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कीर्ति-स्मृति
Dt. 19-07-2018-27
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"चोरी किये हुए तो नहीं, लूटे हुए जरुर हैं - परंतु किसी निर्दोष आदमी से नहीं। ये खींच कर लाये हुए पैसे है उन भ्रष्टाचारियों से, काले-बाज़ारियों से, सितमगर गरीबों का खून चूसनेवालों से, करचोरों से और घूसखोर बाबु लोगों से ।" मनीराम ने उत्तर दिया । __"फिर भी मैं इस का स्वीकार नहीं करूंगा।" दृढ़तापूर्ण कीर्ति ने कहा ।"
"लेकिन हम गरीबों की भलाई के आपके अच्छे काम के लिये देना चाहते हैं, कृपा कर ले लीजिये।" उन्होंने दलील की। ...
-"बेशक ये पैसे सच्चे गरीबों के काम के लिये हो सकते हैं, परंतु जबतक मैं आपको पूरी तरह जानूं नहीं और जब तक आप हमारे सिद्धांतो और काम के तरीकों को जानें नहीं, तब तक मैं राह देखूगा।" कीर्तिने फिर दृढ़तापूर्वक कहा ।
"तो हम अब क्या करें ?" पूछा मनीराम ने,
इस पर कीर्ति ने कहा "अभी आप पैसे अपने पास ही रखिये। कल आप हमारी फैक्ट्री देखने, काम समझने और हमारी नीति-रीति सीखने आइये । पहले हम आप की परीक्षा करेंगे और फिर उसमें खरे उतरें तो आपके धन का भी स्वीकार करेंगे और आपको हमारे काम में जोडेंगे भी। पहले हम एक दूसरे को समझें और जानें । आप एवं सभी सुखी हों, शुभरात्रि ।" यह सुनकर मनीराम और साथी बड़े प्रभावित हुए और दूसरे दिन आने का वादा कर पैसे लेकर गये। .
कीर्ति का अशुद्ध धन और अनजाने जन का स्वीकार नहीं करने का यहाँ बुद्धिपूर्ण, सिध्धांतनिष्ठ अभिगम था, जो इसके अभिनव क्रान्ति-कार्य के लिये उचित ही था ।
दूसरे दिन कीर्ति, मनीराम आदि उन सभी नवागंतुकों की गंभीर रूप से जाँच, परीक्षा करनेवाला था और उन्हें अपनी मूलभूत नीतिरीति एवं नैतिक दृष्टि से शुद्ध ऐसी क्रान्ति के प्लान स्पष्ट रूप से समझानेवाला था। उसके छोटे-से फैक्ट्री-कार्य और दीर्घ-चिंतित, आयोजित क्रान्ति-कार्य दोनों के पीछे उसकी एक गहन, संतुलित, भूमिका थी। उसके पास जीवन और जगत का गहन एवं वास्तविक अवलोकन-निरीक्षण-अनुभव था, महान पुरुषों, चिंतकों, क्रान्तिकारों का संग-समागम एवं उनसे चर्चा-चिंतन-विनिमय था; विशाल पठन-मनन था; स्पष्ट विधायक, आर्ष कार्यदृष्टि थी एवं सब से ऊपर बाल्यावस्था के हमारे उत्कृष्ट, दीर्घजीवी परिवार-संस्कार थे । इन संस्कारों में एक ओर से हमारे माता-पिता द्वारा संनिष्ठ रूप से अनुपालित ऐसे करुणा, अहिंसा, राष्ट्रप्रेम एवं विशेषकर जैन सिद्धांत थे, जो कि हमने महात्मा गांधीजी के ही आध्यात्मिक मार्गदर्शक युगुपुरुष ऐसे श्रीमद् राजचंद्रजी से वर्तमान कालानुरूप सुयोग्य, समुचित रूप में आत्मसात् किये थे । तो दूसरी ओर से, खास कर के कीर्ति ने, अपने सन्मुख रखा हुआ एक आदर्श था, जिसमें सौराष्ट्र के डकैतों-लूटेरों-बहारवटियाओं 'डाकुओं ने भी अपने पर गुज़रे हुए सितमों और अन्यायों के खिलाफ युद्ध छेड़ने के दौरान एक उच्च, प्रामाणिक, स्वानुशासन का अभिगम (approach) रखा था - निर्दोषों को, अबलाओं को, बालकों को निशाना नहीं बनाते हुए केवल उन जुल्मी, सितमगर, अन्यायी शासकों या महाजनों पर
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