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Dt. 19-07-2018 - 16:32
. कीर्ति-स्मृति..
दूसरी घटना लींबड़ी के बाद पूना-जुलीकांचन जाने के बीच बम्बई की है, जहाँ उसे हमारे सबसे बड़े अग्रज ने अपने माटुंगा गुजराती क्लब के कैन्टीन के कॉन्ट्रैक्ट के दौरान, उसका (लघु बंधु का ही!) शोषण करते हुए सहायक के रूप में रखा था, जिस कार्य में उसे धोने पड़ते थे होटल के झूठे बर्तन ! क्रान्ति-आकाश का मुक्त-पंछी वहाँ भी कैसे बंधा रह सकता था ? वहाँ से उड़कर, फिर कुछ क्रान्ति-कार्यों का अनुभव लेकर वह लौट आया था हम सब के पास - एक दर्दभरा, प्रेम-प्यासा मुखड़ा लेकर । काँप उठे थे, उमड़ पड़े थे सहानुभूति में हम सबके उसके प्रति आँसू और बड़े अग्रज के प्रति कुछ विवशतापूर्ण धिक्कार-भाव । .
. ... _ अतीत के ऐसे कटु अनुभव और मद्रास के कठोरतम अनुभव कीर्ति के आगे के कलकत्ता के क्रान्ति-कार्यों से कुछ संबंध रखनेवाले थे । हमारे तथाकथित 'स्वजनों' (!) के विषय में अनकहे भी ये अनुभव बहुत कुछ कहनेवाले थे । जब सहजभाव से अपनी यह स्वजन-कथा की वेदना कीर्तिने बाद में पूज्य बालकोबाजी के प्रति व्यक्त की थी, तब उन्होंने उसे संत तुलसीदासजी का यह मर्मपूर्ण, प्रसंगोचित, सुंदर भजन सुनाया और सिखाया था कि जिसे 'राम' अर्थात 'सत्य' प्रिय न हो वे परम स्नेही-स्वजन हों तो भी उनका संग छोड़ देना चाहिये :
"जाके प्रिय न राम वैदेही.... सो छाँडिये कोटि वैरी सम, जद्यपि परम सनेही.... जाके प्रिय न राम वैदेही "तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बंधु, भरत महतारी । हरि हित गुरु बलि, भये मुद मंगलकारी.... जाके प्रिय न राम वैदेही ।"(तुलसीदास)
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