Book Title: Karunatma Krantikar Kirti Kumar
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 14
________________ Dt. 19-07-2018 - 8 3 . कीर्ति-स्मृति . - जिसका हमने नूतन 'महात्मा गांधी विद्यालय' नाम रखा था- में तो इन संस्कारों का और भी विकास हुआ । साहित्य-संगीत-कला मंडल की एवं 'नूतनप्रभा', 'मुक्ति' आदि हस्तलिखित ग्रंथों की एवं १९४७ आज़ादी दिन १५ अगस्त के पश्चात् गांधी निर्वाण दिन ३० जनवरी १९४८ के प्रसंगों से तो यह विद्यालय हमारी राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का केन्द्र-सा बन गया । आचार्यश्री मगनलाल मुलाणी, सर्वश्री जादवजीभाई सवाणी (सवाणी बापू), बाबुभाई रावल, भगवानदास निम्बार्क, आदि अनेक सरस्वती-सिद्ध अध्यापकों के नीचे हमारे सारे संस्कारों को पनपने एवं सुदृढ़ होने का बल मिला।कीर्ति की तो क्रान्तिकारों के जीवन-अध्ययन में और मेरे साथ श्री समर्थ व्यायाम मंदिर में शरीरंगठन में बड़ी ही गति होती चली। अमरेली की भाँति पूना में भी श्री लालजी गोहिल एवं श्री दादावाले जैसे राष्ट्रवादी अध्यापक एवं श्री नगरकर जैसे चित्रकला अध्यापक ने हम पर अपना अमिट संस्कार-प्रभाव छोड़ा । अमरेली में मेरे १६ वें जन्मदिन पर पू. पिताजी ने एक ताने के साथ मुझे श्रीमद् राजचन्द्रजी की १६ साल की आयु में लिखित "मोक्षमाला" पुस्तक भेंट देकर . मुझे मोड़ा था। पूना से कुछ काल बम्बई नालासोपारा प्रथम अग्रज पू. जयन्तीभाई के साथ परिस्थितिवश, अनिच्छा होते हुए भी, व्यापार-दुकान लगाना पड़ा, तब भी समीपस्थ तुळींज की पहाड़ियों में हमारा दोनों लघु बंधुओं का साहस-भ्रमण एवं ग्रंथाध्ययन होता रहा । उस पहाड़ी में श्री मणीलाल रेवाशंकर जगजीवन झवेरी का, जो कि बम्बई में गांधीजी के निवास 'मणीभुवन' के मालिक थे, बगीचा था, जिसकी देखभाल अग्रज करते थे और उन्होंने मणीभुवन से"श्रीमद् राजचन्द्र" वचनामृत ग्रंथ हमें लाकर दिया था, जहाँ उस पहाड़ी बगीचे के एकांत में बैठकर हम उसका थोड़ा थोड़ा पठनलाभ प्राप्त करते थे। परंतु उस दुकान-व्यापार-व्यवसाय में हम दोनों लघुबंधुओं का ध्यान लगा नहीं । प्रथम कीर्ति वहाँ से चला गया और पिताजी के पास अमरेली जाकर ठहरा और कुछ काल बाद मैं भी पिताजीने वहाँ योगनिष्ठ मुनिश्री भुवनविजयजी का सार्थक परिचय करवाया । अमरेली रहकर कुछ समय तक स्वाध्याय के साथ निकटवर्ती लिंबडिया-बरवाला (जामनगर राज्य) की हमारी पैतृक ज़मीनों पर खेती करने की प्रवृत्ति की, वहाँ का सुंदर छोटा-सा घर भी पुनर्निर्मित किया और अमरेली से वहाँ आवागमन करते हुए प्रकृति के बीच कृषक जीवन का भी प्रयोग किया। परंतु पिताजी और हम दो बंधुओं के अतिरिक्त माता आदि सब परिवारजन दोनों अग्रजों के पास नालासोपारा और पूना में होने के कारण भोजनादि पारिवारिक आवश्यकताओं और कुछ पिताजी की अस्वस्थता के कारण यह प्रवृत्ति-प्रयोग अधिक चल नहीं पाया । - इसी बीच १९५० में मुनिश्री संतबालजी के मेरे पत्राचार-परिचय के पश्चात् उनके द्वारा सुझाये हुए उनके गुरुदेव मुनिश्री नानचंद्रजी महाराज 'संतशिष्य' से भावनगर में मुलाकात के बाद, उनके ग्रंथालय "पूज्यश्री देवचन्द्रजी सार्वजनिक पुस्तकालय" लींबडी (सौराष्ट्र) के 'ग्रंथालयी' -. लायब्रेरियन-का मनपसंद कार्य मैंने स्वीकार किया। इससे परिवार के भी कई हेतु सहज ही सिद्ध

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