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मूल्यपरक शिक्षा : सिद्धान्त और प्रयोग लिए जाता हूं। तुम भी प्रवचन सुना करो। बहुत मार्मिक प्रवचन होता है। दूसरे दिन पिता- पुत्र दोनों प्रवचन सुनने गए। मुनि ने उस दिन अद्वैतवाद पर प्रवचन करते हुए कहा-आत्मा एक है। सबकी आत्माएं समान हैं। मुनि ने इस विषय का विस्तार से विवेचन किया। लड़के का मन पसीज गया। प्रवचन सम्पन्न हुआ। पिता भोजन करने घर चला गया और पुत्र दुकान पर आ बैठा। वह किराने का व्यापारी था। यत्र-तत्र अनाज के ढेर लग रहे थे। एक गाय आई और ढेर में पड़े अनाज को खाने लगी। लड़के ने देखा, सोचा, मेरी और इसकी आत्मा में कोई अन्तर नहीं है। फिर अनाज खाए तो मुझे क्या? घर से दुकान की ओर आते हुए पिता ने दूर से ही देख लिया कि गाय अनाज खा रही है और पुत्र निश्चिन्त होकर बैठा है। पिता ने आते ही लड़के को डांटा। लड़के ने कहा-पिताजी ! आज ही तो सुना था कि आत्माएं सब समान हैं। गाय की आत्मा और हमारी आत्मा दो नहीं है, समान है। पिता ने कहा--'मूर्ख! वह बात तो प्रवचन में सुनने की थी। यदि उसे दुकान पर या घर पर लागू किया जाता है तो न दुकान चल सकती है और न घर चल सकता है।
यह सुनना स्थान से प्रतिबद्ध हो गया और आचरण की स्थान प्रतिबद्धता कोई दूसरी हो गई।
सत्य त्रैकालिक होता है। यह देश-काल से अतीत होता है। किंतु श्रवण, प्रवचन, वाणियां, सिद्धांत-ये सब स्थान प्रतिबद्ध हो गए। सुबह-शाम भगवान् का नाम लेना, दिन भर उसकी विस्मृति हो जाए तो कोई बात नहीं। धर्म- स्थान पर भगवान की पूरी चिंता करना और दुकान, घर या कार्यालय में उसे भूल जाना-यह आज की प्रवृत्ति है। इससे यह स्पष्ट होता है कि कोरा सिद्धान्त उतना उपयोगी नहीं है, जितना प्रयोग के साथ वह उपयोगी बनता है। भाव परिवर्तन के लिए सिद्धांत और प्रयोग-दोनों का समन्वय आवश्यक है। समन्वय जीवन का मूल्य है। इसलिए ज्ञान और क्रिया का समन्वय होना चाहिए। 'पढमं नाणं तओ दया'-पहले ज्ञान और फिर क्रिया, पहले जानो फिर उसका अभ्यास करो।
सिद्धान्त या मूल्य- बोध को व्यर्थ नहीं माना जा सकता। उसकी
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