Book Title: Jivan Vigyan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 134
________________ जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प १२३ आदमी को देखा है कि बचपन से ही उसके मन म साधना का बात आई और वह साधना करने चला । किन्तु चंचलता इतनी कि किसी भी बात पर जमा नहीं । आज एक पद्धति को अपनाया तो तीसरे दिन दूसरी पद्धति को । और सातवें दिन तीसरी पद्धति को | बदलता गया, बदलता गया । आज यह स्थिति है कि वह जहां था, लगभग वहीं है, बहुत आगे नहीं बढ़ पाया। कहीं न कहीं आदमी को अपना पैर जमाकर खड़ा होना होता है और जब वह बिन्दु प्राप्त नहीं होता है तो कहीं भी हम कुछ कर नहीं पाते। हमें आस्था को दृढ़ बनाना है और उसके लिए भावना का परिवर्तन आवश्यक है। शिक्षा के साथ इस संस्कार को पुष्ट किया जाए कि 'सब जीव समान हैं।' यह बात भी कुछ अमूर्त बन जाती है। मूर्त्त बात, सगुण भाषा ज्यादा प्रभावशाली बनती है। अमूर्त बात कभी कभी कमजोर बन जाती है तो फिर इस आधार पर एक सिद्धांत विकसित किया कि जीवों की बात हम छोड़ दें पर कम से कम जो हमारे सामने हैं, हमारे जैसे हैं, उसके प्रति तो यह भाव विकसित करें कि मानव जाति एक है। दूसरा मनुष्य वैसा ही है जैसा मैं हूं और जैसा मैं हूं, वैसा ही दूसरा मनुष्य है । इतनी आस्था उत्पन्न हो जाए तो मानवीय व्यवहार बदल जाए और यह बचपन में ज्यादा संभव है, क्योंकि उस अवस्था तक दूसरे संस्कार हावी नहीं होते, प्रभावी नहीं बनते । जैसा प्रारंभिक पाठ मिलेगा, विद्यार्थी उसे जल्दी पकड़ेगा । समाजशास्त्र के अनुसार जिन मालिकों और दासों में मानवीय स्तर पर चिन्तन हुआ और संबंध स्थापित हुए, उनका व्यवहार बदल गया । एक बड़ी क्रूर कहानी रही है इतिहास की - मालिकों ने अपने दासों पर इतने क्रूर अत्याचार किए हैं कि उनको मानव नहीं माना जा सकता । मालिक मानो मनुष्य हो और दास जैसे उसका पशु हो । पशु के प्रति भी उतने अत्याचार या क्रूर व्यवहार नहीं किए जाते किन्तु मनुष्य के प्रति किए गए हैं और इतिहास की हजारों हजारों घटनाएं इस तथ्य की साक्षी दे रही हैं । आज भी देखते हैं तो बड़ा आश्चर्य होता है। आदमी कुछ अर्थों में आदमी से ज्यादा पशु को मूल्य देता है, क्योंकि उसकी उपयोगिता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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