Book Title: Jivan Vigyan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 154
________________ समाज का आधार : अहिंसा का विकास १४३ होती हैं। ये सामाजिक परिस्थितियां होती हैं और ऐसी घटनाएं सामने आती हैं। यदि परिस्थिति, वातावरण और व्यवस्था समतापूर्ण नहीं होती, ज्यादा असंतुलित होती है तो वहां हिंसा को बहुत बल मिलता है। अहिंसा के विकास में चौथा विघ्न है-शरीरगत रसायन । प्रश्न पैदा होगा कि परिस्थिति की जटिलता में तो हिंसा को उत्तेजना मिलती है किन्तु ऐसे लोग भी हिंसा करते हैं जिनके सामने कोई परिस्थिति नहीं, कोई वातावरण नहीं। वे भी हिंसा में बहुत रस लेते हैं। ऐसा क्यों होता है? इस पर हम चिन्तन करें। कोई भी बात एकांगी दृष्टि से सही नहीं है और किसी घटना का एक ही कारण नहीं होता। हिंसा का एक कारण तंत्रिका के रसायन का असंतुलन भी है। हमारी तंत्रिकाओं में पैदा होने वाले रसायन असंतुलित होते हैं तो व्यक्ति हिंसक बन जाता है, आक्रामक बन जाता है। आक्रामकवृत्ति में शरीर की क्रिया का भी बहुत बड़ा भाग है। एक संपन्न व्यक्ति है। उसके कोई कमी नहीं, कोई असंतोष नहीं, सर्वथा सुखी, फिर भी उसमें हिंसा की वृत्ति जाग जाती है। एक व्यक्ति न चोर है, न डकैत है, कुछ भी नहीं। वह आदमी को मारने में रस लेता है। आदमी मिलता है और वह उसकी कनपटी को दबाकर मार डालता है। यह घटित घटना है। उसे न कोई लेना है, न कोई देना। वह न धन लूटता है, न और कुछ। उसका केवल इतना ही नशा है कि आदमी को मार डालना। ऐसा क्यों होता है? तंत्रिका के रसायन असंतुलित बन जाते हैं और उस असंतुलन के कारण हिंसा में आदमी का रस पैदा हो जाता है। यह असंतुलन शरीरगत कारण है। आज शारीरिक तत्वों के कारण भी हिंसा को बल मिल रहा है। इसका संबंध हमारे भोजन से भी है और पैदा होने वाले रसायनों से भी है। । वर्तमान में फास्फोरस की मात्रा शरीर में ज्यादा जा रही है और मेग्निशियम की मात्रा कम हो रही है। यह भी आक्रामक वृत्ति का एक कारण है। शीशे की, जस्ते की मात्रा शरीर में ज्यादा जाती है, व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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