________________ कर्म संस्कार के परिष्कार का उपाय है भावशुद्धि और व्यवहारशुद्धि। व्यवहार शुद्धि के तीन रूप बनते हैं 1. संयमपूर्ण व्यवहार। 2. प्रामाणिक व्यवहार - नैतिकता। 3. मृदु व्यवहार। मनुष्य में राग या आसक्ति का आवेश है, इसलिए वह असंयमपूर्ण व्यवहार करता हैं। उसमें लोभ का आवेश है, इसलिए वह अप्रामाणिक व्यवहार करता है। अवांछनीय व्यवहार का मूल हेतु है आवेश। जैसा आवेश वैसा व्यवहार - यह कर्मशास्त्रीय दृष्टिकोण है। उसके अनुसार व्यवहार के नियंत्रण-सूत्र नाड़ी-तंत्र और ग्रंथितंत्रीय रसायन हैं। वे बदलते रहते हैं और उन्हें बदला जा सकता है। उन्हें बदलने का आध्यात्मिक सूत्र है - भावशुद्धि। जैसा भाव वैसा रसायन। भाव शुद्ध तो रसायन शुद्ध, भाव अशुद्ध तो रसायन भी अशुद्ध। भाव का स्रोत सूक्ष्म शरीर है। रसायन हमारे स्थूल शरीर में पैदा होते हैं। मानवीय व्यवहार की व्याख्या का आदि सूत्र है कर्म का स्पन्दन। उसके दृश्य सूत्र हैं जैविक रसायन और जैविक विद्युत। इस श्रृंखला में कर्मस्पंदन भाव का, भाव जैविक रसायन का, जैविक रसायन विचार और व्यवहार का कारण बनता है। कर्म-संस्कार के संचय का कारण है विचार और व्यवहार। विचार की एकाग्रता और व्यवहार शुद्धि की प्रणाली सिखाने पर पचास प्रतिशत शिक्षा संपन्न हो जाती है। शेष पचास प्रतिशत शिक्षा का क्षेत्र है बौद्धिक और कर्म-कौशल (टैक्नोलॉजी) का विकास। -आचार्य महाप्रज्ञ (जैन विश्व भारती लाडनूं-३४१३०६ (राज.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org