Book Title: Jivan Vigyan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 143
________________ १३२ जीवन विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प कहा - 'बोलो, तुम कहां जाना चाहते हो, स्वर्ग में या नरक में?' वह बोला- मुझे स्वर्ग और नरक से कुछ लेना-देना नहीं है। जहां दो पैसे का लाभ हो वहीं भेज दें ! जब दृष्टिकोण अर्थ- प्रतिबद्ध हो जाता है तब व्यक्ति यह नहीं देखता कि वह स्वर्ग है या नरक । उसे तो दो पैसे चाहिए। ठीक यही बात आज हो रही है। आज का मनुष्य कहां अच्छाई है और कहां बुराई है, इस बात की चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं समझता । वह केवल इतना जानता है कि जहां, सुविधा, अधिकतम भोग मिले, वहीं कल्याण है । यह एक दृष्टि बन गई। इस परिस्थिति में और क्या कल्पना की जा सकती है? संभावना भी नहीं की जा सकती । इस स्थिति में संघर्ष का बढ़ना अनिवार्य है। हम एक ओर जाएं। दोनों बातों को साथ लेकर न चलें। दो घोड़ों की सवारी एक साथ नहीं की जा सकती। एक पर ही चढ़ा जा सकेगा । या तो सुविधावाद पर चलें फिर हिंसा होती है, उसे स्वीकार करें क्योंकि यह इसका निश्चित परिणाम है। हम फिर क्यों घबराएं और क्यों कष्ट का अनुभव करें? हम यह सोचते हैं कि सामाजिक जीवन में अधिकतम अहिंसा या शांति हो, उपद्रव न हो, अपराध न हो, आक्रामक मनोवृत्तियां न हों, आतंकवाद न हो, तो फिर सुविधावादी दृष्टिकोण को बदलना होगा। दोनों बातें साथ नहीं चल सकतीं। हमें एक का चुनाव करना पड़ेगा। अधर में त्रिशंकु की स्थिति बन जाती है। यह समय है चुनाव करने का। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सुविधा न भोगें । यह कैसे कहा जा सकता है? एक सामाजिक प्राणी, समाज में जीने वाला सुविधा का अनुभव न करे, यह कैसे संभव है? सुविधा को भोगना एक बात है और सुविधावादी दृष्टिकोण होना दूसरी बात है । जो सुविधा प्राप्त है उसका उपभोग करने में अनर्थ जैसा मुझे कुछ नहीं लगता, किन्तु जब येन-केन प्रकारेण सुविधा ही प्राप्त करने का दृष्टिकोण बन जाता है, तब समस्याएं पैदा होती हैं। यह वैज्ञानिक युग है । इस युग ने मनुष्य के लिए सुविधा के बहुत साधन जुटाए हैं तो साथ साथ उद्दण्डता, उच्छृंखलता और अपराध के साधन भी जुटाएं हैं। दोनों बातें साथ साथ चल रही हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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