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मूल्य परक शिक्षा : सिद्धान्त और प्रयोग
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छुड़वाने के लिए व्यवहारिक प्रयोग भी कराने चाहिए। ऐसी चीज उसके सामने रखें कि वह उस चीज को चुराने के लिए लालयित हो जाए। जब वह चोरी करे तो उसे कहें कि चोरी करते हमने देखा है। दो- चार बार ऐसा करने से उसमें अपने आप एक मानसिक भाव पैदा होगा कि मैं चोरी करता हूं, इसलिए मुझे यह सब सुनना पड़ता है। तब उसमें परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। यदि उसको टोका जाता है तो उसे और अधिक प्रेरणा मिलती है।
कुछ लोग मानते हैं कि दंड- प्रयोग से भाव- परिवर्तन होता है। दंड- प्रयोग अनुचित ही है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, पर उसकी एक सीमा है। सभी की योग्यताएं एक समान विकसित नहीं होती। सबकी अलग-अलग योग्यताएं होती हैं। इस स्थिति में दंड का भी अपना स्थान है। यदि किसी का मस्तिष्क पगला जाता है, अस्त-व्यस्त हो जाता है तो उसे दंड के भय से व्यवस्थित रखा जा सकता है और यदि उसके साथ मीठी बातें की जाएं तो वह हावी हो जाता है। दंड का प्रयोग एक सीमा तक उपयोगी है।
विद्यार्थी को निरन्तर दंड से गुजरना पड़े, यह भी अच्छा नहीं है और उसे दण्ड से सर्वथा मुक्त रखा जाए, यह भी अच्छा नहीं है। संतुलन होना चाहिए। यह निर्णय लेने की क्षमता होनी चाहिए कि कब, किसे कितना दंड दिया जाए।
किसी विद्यार्थी में झूठ बोलने की आदत है। उसे उस आदत से मुक्त करना है तो पहले उसे झूठ के परिणामों का बोध कराना होगा। 'झूठ मत बोलो' यह कहने मात्र से कोई भी इस बुराई से बच नहीं सकता। सौ बार उपदेश देने पर भी वह झूठ बोलना नहीं छोड़ता। यदि उसे अनुप्रेक्षा का प्रयोग कराया जाता है तो झूठ बोलने की आदत में परिवर्तन होने लगता है। अनुप्रेक्षा का सिद्धान्त, फ्रीक्वेन्सी का सिद्धान्त है, आवृत्तियों का सिद्धान्त है। बार बार उस बात को दोहराने से संस्कार का निर्माण होता है। यही परिवर्तन की प्रक्रिया है।
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