Book Title: Jiva Ajiva
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 29
________________ जीव-अजीव वाली शक्ति-क्रिया की पर्याप्ति होती है जिस पुद्गल-समूह से, उसे कहते हैं-श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति। ५. भाषा के योग्य पुद्गलों का ग्रहण और उत्सर्ग करने वाली क्रिया की पर्याप्ति होती है जिस पुद्गल-समूह से, उसे कहते हैं--भाषा-पर्याप्ति। ६. मन के योग्य पुद्गलों का ग्रहण और उत्सर्ग करने वाली क्रिया की पर्याप्ति होती है जिस पुद्गल-समूह से, उसे कहते हैं- मनः पर्याप्ति। प्रश्न--पर्याप्तियों के पूर्ण होने के बाद उनसे जीवों को क्या लाभ होता उत्तर-आहार पर्याप्ति के द्वारा जीव प्रतिसमय आहार' करने की क्रिया करता है, अपने योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और उसके द्वारा ही गृहीत आहार खल (असार मल-मूत्र रूप) और सार (रस रूप में) विभाजित होता है। शरीर-पर्याप्ति के द्वारा उस आहार का सात धातुओं के रूप में परिणमन होता है। इंद्रिय-पर्याप्ति इन्द्रियों के विषयों को जानने में सहायक होती है। श्वासोच्छ्वास की क्रिया, बोलने की क्रिया, आलोचना की क्रिया क्रमशः श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति, भाषा-पर्याप्ति और मनःपर्याप्ति की सहायता से होती है। पर्याप्ति प्राणी का एक विलक्षण लक्षण है। प्राणी के सिवाय यह लक्षण अन्यत्र कहीं भी नही मिलता। पर्याप्तियों के द्वारा प्राणियों में विभिन्न पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्ग होता रहता है। १. औदारिक, वैक्रिय, आहारक और छहों पर्याप्तियों के योग्य जो पुद्गलों का ग्रहण होता है, उसे आहार कहते हैं। आहार तीन प्रकार के हैं-ओज-आहार, रोम-आहार और कवल-आहार ओज-आहार-कार्मण योग के द्वारा प्रथम समय में जो पुद्गल-समूह ग्रहण किया जाता है, वह है-ओज-आहार रोम-आहार-स्पर्शन-इन्द्रिय द्वारा जो पुद्गल-समूह ग्रहण किया जाता है, वह है-रोम-आहार। रोम-कूप के द्वारा क्षण-क्षण में पुद्गलों का ग्रहण होता रहता है। सूर्य के ताप से संतप्त और प्यासा पथिक वृक्ष की छाया में जाकर रोम-कूप के द्वारा ठंड के पुद्गलों को ग्रहण करता है और परम शांति का अनुभव करता है। प्रक्षेप या कवल-अपहार-वह आहार, जो मुख से ग्रहण किया जाए अथवा जो बाह्य साधनों के द्वारा शरीर में प्रक्षिप्त किया जाए। नाक के द्वारा रबर की नली से या गुदा, इंजेक्शन के द्वारा जो आहार शरीर में प्रवेश कराया जाता है, वह सब कवल-आहार की श्रेणी में है। एक आहार मानसिक है, जो देवताओं के होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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