Book Title: Jiva Ajiva
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 147
________________ तेईसवां बोल पांच महाव्रत १. अहिंसा-महाव्रत ४. ब्रह्मचर्य-महाव्रत २. सत्य-महाव्रत १. अपरिग्रह-महाव्रत ३. अस्तेय-महाव्रत जब कोई दीक्षित होता है, उस समय वह आजीवन पांच महाव्रतों का पालन करने की प्रतिज्ञा करता है। वह तीन करण, तीन योग से पांच आश्रवों (हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह) का प्रत्याख्यान करता है। अहिंसा-महाव्रत-पहला महाव्रत अहिंसा का है। उसमें जीव-हिंसा का सर्वथा त्याग किया जाता है। प्रश्न होता है--भोजन जीवन का सर्व प्रथम साधन है। उसके बिना जीवन टिक नहीं सकता और भोजन हिंसा के बिना बनता नहीं, ऐसी स्थिति में अहिंसक साधु कैसे जीए ? साधु न भोजन बनाता है, न दूसरों से बनवाता है और न भोजन बनाने वाले को अच्छा ही समझता है। गृहस्थ अपने लिए जो भोजन बनाता है उसी का अंश प्राप्त कर वह अपना जीवन-निर्वाह कर लेता है। प्रश्न--हिंसा से बचने के लिए साधु भले स्वयं न पकाए, न दूसरों से पकवाए और पकवाने को भले अच्छा न समझे, फिर भी हिंसा से तैयार किये हुए भोजन को वह लेता है। तब वह उस हिंसा के दोष का भागी क्यों नहीं होगा? उत्तर --हिंसा-जनित वस्तु को लेने वाला उसी अवस्था में हिंसा का दोषी बनता है जब प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उस हिंसा में उसका कुछ भाग हो । जो व्यक्ति अपने निमित्त बनाये भोजन को किसी भी अवस्था में नहीं लेता, वह उस हिंसा का भागी नहीं बनता। गृहस्थ अपने लिए हिंसा करता है, साधु के लिए नहीं। अगर साधु के लिए कोई भोजन बना दे और साधु उसे ले ले तो वह उस हिंसा से बच नहीं सकता। जिस समय गृहस्थ के घर से साधु भोजन लाता है उससे पहले उन वस्तुओं पर साधु का न तो कोई अधिकार ही होता है और न कोई सम्बन्ध भी। जब तक भोजन बनाने में हिंसा होती रहती है तब तक वह भोजन साधु के लिए अकल्पनीय रहता है और उसके तैयार हो जाने के बाद भी जब तक गृहस्थ अपनी इच्छा से नहीं दे देता तब तक साधु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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