Book Title: Jiva Ajiva
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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पचीसवां बोल
चारित्र पांच १. सामायिक चारित्र
४. सूक्ष्म-सम्पराय चारित्र २. छेदोपस्थाप्य चारित्र
१. यथाख्यात चारित्र ३. परिहार-विशुद्धि चारित्र
चारित्र शब्द के तीन अर्थ हैं-१. आत्मा की अशुद्ध प्रवृत्ति का निरोध । २. आत्मा को शुद्ध-दशा में स्थिर रखने का प्रयत्न। ३. जिससे कर्म का क्षय होता है, वैसी प्रवृत्ति।
सामायिक चारित्र-समभाव में स्थिर रहने के लिये सम्पूर्ण अशुद्ध प्रवृत्तियों का त्याग करना सामायिक चारित्र है। छेदोपस्थापन आदि चार चारित्र इसी (सामायिक) के ही विशिष्ट रूप हैं। उनमें आचार और गुण सम्बन्धी कुछ विशेषताएं हैं, अतः उन्हें भिन्न श्रेणी में रखा गया है।
सामायिक चारित्र सर्व सावध योग का त्याग करने से प्राप्त होता है। तीन करण-करना, कराना, अनुमोदन करना और तीन योग-मन, वचन, काया-से पाप-युक्त प्रवृत्ति का त्याग करना सामायिक चारित्र है। इससे अव्रत आश्रव का सम्पूर्णतया निरोध हो जाता है।
छेदोपस्थाप्य चारित्र-इसका एक अर्थ है-विभागपूर्वक महाव्रतों की उपस्थापना करना। इसका दूसरा अर्थ है-पूर्व पर्याय का छेदन होने पर जो चारित्र प्राप्त होता है, वह चारित्र।
सामायिक चारित्र में सावध योग का त्याग सामान्य रूप से होता है। छेदोपस्थाप्य चारित्र में सावध योग का त्याग छेद (विभाग या भेद) पूर्वक होता
दीक्षा ग्रहण करते समय सामायिक चारित्र लिया जाता है। इसमें केवल 'सव्वं सावजं जोगं पच्चक्खामि-सर्व सावध योग का त्याग किया जाता है। किन्तु दीक्षित होने के सात दिन या छह मास बाद साधक में पांच महाव्रतों की विभागशः आरोपणा की जाती है। इसे छेदोपस्थाप्य चारित्र कहा जाता है।
प्रथम ली हुई दीक्षा में दोषापत्ति आने से उसका छेदन कर फिर नये सिरे से दीक्षा लेना भी छेदोपस्थाप्य चारित्र है।
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