Book Title: Jiva Ajiva
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 120
________________ उन्नीसवां बोल ध्यान चार १. आर्तध्यान ३. धर्मध्यान २. रौद्रध्यान ४. शुक्लध्यान ध्यान का अर्थ है-चिन्तनीय विषय में मन को एकाग्र करना, एक विषय पर मन को स्थिर करना अथवा मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का निरोध करना। ___ध्याता ध्यान के द्वारा अपने ध्येय को प्राप्त करने का प्रयास करता है और उसमें सफल भी होता है। ध्येय की इष्टता और अनिष्टता के आधार पर ध्यान भी इष्ट और अनिष्ट बन जाता है। सामान्यतः ध्येयं अपरिमित है। जितने मनुष्य हैं, उन सबकी एकाग्रता विभिन्न होती है। उनका प्रतिपादन करना असंभव है। संक्षेप में उसके चार भाग किए गए हैं। जितनी अनात्माभिमुख एकाग्रता है, वह सब आर्त व रौद्र ध्यान है, जितनी आत्माभिमुख एकाग्रता है, वह सब धर्म व शुक्लध्यान है। आर्त और रौद्र संसार के कारण हैं, अतः हेय हैं। धर्म और शुक्ल मोक्ष के कारण हैं, अतः उपादेय हैं। १. आतध्यान-अर्ति का अर्थ है--पीड़ा या दुःख। उसमें होने वाली एकाग्रता को आतघ्यान कहते हैं। दुःख की उत्पत्ति के मुख्य चार कारण हैं और उन्हीं कारणों को लेकर आतघ्यान के चार भेद किए गए हैं: (क) अनिष्ट-संयोग-अप्रिय वस्तु प्राप्त होने पर उसके वियोग के लिए निरन्तर चिन्ता करना। (ख) इष्ट-वियोग-किसी इष्ट मनोनुकूल वस्तु के चले जाने पर उसकी पुनः प्राप्त के निमित्त निरन्तर चिंता करना। (ग) प्रतिकूल-वेदना-शारीरिक, मानसिक पीड़ा या रोग होने पर उसे दूर करने की निरन्तर चिन्ता करते रहना। (घ) भोग-लालसा-भोगों की तीव्र लालसा के वशीभूत होकर अप्राप्त भोग्य वस्तु को प्राप्त करने का तीव्र संकल्प करना, मन को निरन्तर उसी में लगाए रहना। २. रौद्रध्यान-जिसका चित्त क्रूर और कठोर हो, वह रुद्र होता है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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