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चौदहवां बोल
आचार्य भिक्षु के अनुसार प्रमाद आश्रव आत्म-प्रदेशवर्ती अनुत्साह है, निद्रा आदि नहीं। निद्रा-विकथा आदि मन, वाणी और काययोग के कार्य हैं। योग-जनित कार्यों का समावेश योग- आश्रव में ही होता है, अन्यत्र नहीं। प्रमाद और योग आश्रव का भेद स्पष्ट है, जैसे- निद्रा आदि नैरन्तरिक नहीं, किन्तु प्रमाद आश्रव नैरन्तरिक है, इसलिए उन्होंने लिखा है- तिण सूं लागे निरन्तर पापो रे ।'
४. कषाय आश्रव - आत्म-प्रदेशों में क्रोध आदि चार कषायों की उत्तप्ति । मुख की लालिमा, भृकुटी आदि जो दृश्यमान विकार हैं, वह योग आश्रव है, कषाय- आश्रव नहीं । कषाय- आश्रव तो आत्मा की आंतरिक तप्ति है।
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५. योग आश्रव-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति | इसके दो भेद हैं--शुभयोग आश्रव और अशुभयोग आश्रव ।
शुभ योग से निर्जरा होती है। इस अपेक्षा से वह शुभ योग आश्रव नहीं किन्तु वह शुभ कर्म के बन्ध का कारण भी है, इसलिए वह शुभ योग आश्रव है।
प्रश्न--शुभ योग आश्रव क्यों ?
उत्तर--शुभ योग से दो कार्य होते हैं- शुभ कर्म का बन्ध और अशुभ कर्म की निर्जरा । शुभ कर्म का बन्ध होता है, इसलिए वह शुभ योग आश्रव कहलाता है और कर्मों का क्षय होता है, इसलिए उसे निर्जरा कहा जाता है। वस्तुस्थिति ही ऐसी है कि शुभ योग अथवा शुभ-अध्यवसाय के बिना निर्जरा भी नहीं हो सकती और पुण्य का बन्ध भी नहीं हो सकता।
आत्मा की प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है -- बाहूय और आभ्यन्तर । जो बाह्य प्रवृत्ति होती है, उसे योग कहते हैं और जो आभ्यन्तर प्रवृत्ति होती है, उसे अध्यवसाय कहते हैं। योग तथा अध्यवसाय--ये दोनों दो-दो प्रकार के होते हैं- शुभ और अशुभ | इनकी अशुभ प्रवृत्ति से पाप कर्म बन्धता है और आत्मा मलिन होती है तथा शुभ प्रवृत्ति से निर्जरा होती है, आत्मा उज्ज्वल होती है और पुण्य कर्म बन्धता है ।
एक ही कारण से दो काम कैसे हो सकते हैं, इसका शास्त्रीय न्याय यह है कि शुभ योग मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से तथा शुभ-नाम-कर्म के उदय से निष्पन्न होता है। शुभ योग क्षय, क्षयोपशम या उपशम से निष्पन्न होता है, इसलिए उस (शुभ योग ) से निर्जरा होती है और वह उदय से भी निष्पन्न होता है, इसलिए उससे शुभ कर्म बन्धते हैं, अतः निर्जरा और पुण्य-बन्ध का कारण जो व्यावहारिक दृष्टि से एक ही जान पड़ता है, तात्त्विक दृष्टि से
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