Book Title: Jiva Ajiva
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 61
________________ जीव-अजीव विपाकोदय कहते हैं। जो केवल आत्मा-प्रदेशों में भोगा जाता है, उसे प्रदेशोदय कहते हैं। ६. उदीरणा-अबाधा-काल पूर्ण होने पर, जो कर्म-दलिक बाद में उदय में आने वाले हैं, उनको प्रयत्न-विशेष से खींचकर उदय-प्राप्त दलिकों के साथ भोग लेना उदीरणा है। उदीरणा के लिए अपवर्तना के द्वारा कर्म की स्थिति को कम कर दिया जाता है। ७. संक्रमण-जिस प्रयत्न से कर्म की उत्तर-प्रकृतियां अपनी सजातीय प्रकृतियों में बदल जाती हैं, उसे संक्रमण कहते हैं। एक कर्म-प्रकृति का दूसरी सजातीय कर्म-प्रकृति में परिवर्तित होना संक्रमण है। क्रोध का मान के रूप में और मान का क्रोध के रूप में बदल जाना संक्रमण है। आयुष्य कर्म का संक्रमण नहीं होता। दर्शन-मोह और चारित्र-मोह का परस्पर संक्रमण नहीं होता। ८. उपशमन-मोह-कर्म की सर्वथा अनुदयावस्था को उपशम कहते हैं। जिस समय मोहनीय-कर्म का प्रदेशोदय ओर विपाकोदय नहीं रहता, उस अवस्था को उपशम कहते हैं। ६. निधत्ति-जिसमें उद्वर्तन, अपवर्तन के सिवाय संक्रमण आदि नहीं हो, उसे निधत्ति कहते हैं। १०. निकाचना-जिन कर्मों का फल निश्चित स्थिति और अनुभाग के आधार पर भोगा जाता है, जिनके विपाक को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता, वे निकाचित-कर्म कहलाते हैं। इनका आत्मा के साथ गाढ़ सम्बन्ध होता है। इनके उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणा आदि नहीं होते। जैन सिद्धान्त में कर्मवाद का वही स्थान है, जो व्याकरण में कारक का है। संसारी प्राणियों की विविधता का कारण कर्म ही है। कोई विद्वान है, कोई मूर्ख है, कोई आसक्त है, कोई विरक्त है, किसी का जन्म होता है, किसी की मृत्यु होती है, किसी का संयोग, किसी का वियोग, किसी का सत्कार, किसी का तिरस्कार। विद्वान् धनहीन है और मूर्ख धनी है। कोई लेखक है, कवि नहीं। कोई कवि है, वक्ता नहीं । कोई लेखक है, कवि भी है, वक्ता भी है। कोई योग्यता न रखते हुए भी स्वामी है और योग्यता वाला सेवक है--इत्यादि अगणित विविधताएं हैं। इनका आन्तरिक हेतु कर्म है। परिस्थिति के सहयोग से ये प्रकट होकर जीवन को प्रभावित करते हैं। अमूर्त और मूर्त का सम्बन्ध कैसे? कर्म आत्मा पर अनादिकाल से चिपके हुए हैं। कोई भी संसारी आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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