Book Title: Jinvijay Muni Abhinandan Granth
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jinvijayji Samman Samiti Jaipur

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Page 393
________________ प्रेमलता शर्मा ( दशरूपक १ । ६ ) धन्यद्भावाश्रयं नृत्यं नृतं ताललयाश्रवम् । आद्य पदार्थाभिनय मार्गों, देशी तथाऽपरम् ।। अभिनयरहित एवं केवल ताललवाचित होने के कारण नृत्त को तृतीय श्रेणी में स्थान दिया गया है, और इस निम्न कक्षा के कारण ही उसे देशी कहा है। प्रादिम जातियों के नाचने में भाज भी केवल ताल लयाश्रित गात्र - विक्षेप का दर्शन होता है । नाट्य में रस मुख्य होने के कारण आांगिक, वाचिक, सात्त्विक और ग्राहाय्यं चारों प्रकार के अभिनय का उस में स्थान होता है। नृत्य में केवल अांगिक अभिनय से ही भावाभि व्यक्ति की जाती है और रस उतने स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त नहीं हो पाता जितना कि नाट्य में । इसीलिये उस में रस का मार्गण कहा गया है। नृत्त में तो अभिनय का कोई स्थान ही नहीं है, इसलिये वह देशी है । नृत्य के रस प्रसंग में मार्ग और देशी का अर्थ प्रापातत: सामान्य अर्थ से कुछ भिन्न दिखाई देता है, क्योंकि न तो यहाँ नियमों की कठोरता अथवा शिथिलता से अभिप्राय है, न अपौरुषेय और पौरुषेय का भेद है, न दृष्टादृष्ट फल का विचार है और न ही निःश्रेयस् अथवा जनरंजन के प्रयोजन के प्रति लक्ष्य हैं । किन्तु यदि गम्भीरता से विचार किया जाय तो यह समझा जा सकता है कि रस की अलौकिकता के कारण उसका मार्गण नृत्य के मार्गत्व का प्रयोजक है और उस मार्गण के प्रभाव में केवल लौकिक मनोरंजन नृत्त के देशीत्व का प्रयोजक है। २८३ ] । अभिनव गुप्त नृत्य को गान्ध " नाट्य को मार्ग से भी ऊपर रखा गया है। इसका आधार अवश्य विचारणीय है जैसे साम से गान्धर्व धौर गान्वर्थ से गान की उत्पत्ति बताई है तद्वत् नाट्य को साम के के और नृत्त को गान के समानान्तर समझा जा सकता है। सामगायन में सामरस्य की के कारण उसमें मार्गण व्यापार का कोई स्थान नहीं हो सकता। उससे एक स्तर नीचे उतर कर गान्धर्व अथवा मार्ग का अस्तित्व है, एवं उससे भी निम्न स्तर देशी का है । पूर्ण उपलब्धि रहने मार्ग में अन्वेषण किस तत्त्व का है ? इस प्रसंग में याज्ञवल्क्य स्मृति के निम्नोडत अंश धौर उन की टीका मननीय है । अनन्यविषयं कृत्वा मनोबुद्धिस्मृतीन्द्रियम् । ध्येय आत्मा स्थितो योऽसो हृदये दीपवत् प्रभुः ।। Jain Education International ने यस्य पुनरस्मिन् सवितकें समाधी निरालम्बनतया बहिर्मुखावभासतिरस्कारेण चित्तवृत्तिनाभिरमते तस्य शब्दब्रह्मोपासनेन ब्रह्मज्ञानाभ्यासात् परब्रह्माधिगमोपायमाह यथावधानेन पठन् साम गायत्यविस्वरम् । सावधानस्तथाभ्यासात् परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ ब्रह्मज्ञानाभ्यासोपाय विशेषमाह- अपरान्तकमुल्लोप्यं मद्रक प्रकरीं तथा । श्रीवेणुकं तु रोविन्दमुनर गीतकानि तु ॥ ऋग्गाथा पारिएका दक्षविहिता ब्रह्मगीतिकाः । गायन्नेतत्तदभ्यास कारणान्मोक्ष संज्ञितम् ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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