Book Title: Jinvijay Muni Abhinandan Granth
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jinvijayji Samman Samiti Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 450
________________ ३४० ] प्रो० प्रेम सुमन जैन लेकिन जैन-दर्शन को यह दुहरी परिकल्पना कोई दिशा न दे सकी। उसने इस चिन्तन-प्रक्रिया को और गति दी। चिन्तन की गहराई ने मान्यताओं के व्यामोह को भंग किया। इन चार अवस्थाओं को प्रतिपादित किया - १. विश्व के मूल में दो तत्व हैं-जीव और अजीव । २. इन चेतन और अचेतन का सम्बन्ध जीव को नाना प्रकार को दशाओं में परिवर्तित करता है। यही विश्व की विविधता है । ३. उक्त जीव-अजीव के सम्पर्क को रोकने और सर्वथा नष्ट करने की शक्ति जीव में विद्यमान है। ४. तथा सम्पर्क नष्ट होते ही जीव पुनः विशुद्ध एवं निर्मल हो जाता है। यही मुक्ति है । उक्त चार अवस्थाओं के प्रतिपादन से जैन-दर्शन के निम्न चार सिद्धान्त प्रतिफलित होते हैं १. तत्वज्ञान निरूपण : सृष्टि का विश्लेषण । २. कर्म-सिद्धान्त : जीवन का मनोवैज्ञानिक अध्ययन । ३. जैनाचार : संयम एवं तपसाधना । ४. मुक्ति : जीवन की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि । जैन-दर्शन ने इन चारों सिद्धान्तों की व्याख्या सात तत्वों के निरूपण द्वारा की है। प्रथम सिद्धान्त का सम्बन्ध जीव और अजीव से है। द्वितीय का पाश्रव एवं बन्ध से । तृतीय का मूलाधार संवर तथा निर्जरा हैं एवं मोक्ष का सम्बन्ध अन्तिम सिद्धान्त से है। यहां हमें द्वितीय सिद्धान्त कर्मवाद के अन्तर्गत आश्रव एवं बन्ध तत्वों पर विचार करना है और यह देखना है कि आधुनिक मनोविज्ञान को कितने सूक्ष्म ढंग से जैन मनीषियों ने हजारों वर्ष पूर्व हृदयंगम कर रखा था। जीव के साथ कर्मों का सम्पर्क : दो बातें यहां जानना जरूरी है। प्रथम यह कि कर्मों का जीव तक पहुँचने के साधन क्या हैं एवं जीव के समक्ष पहुँचने पर कर्म उससे अपना सम्बन्ध कैसे स्थापित करते हैं ? साधनों पर विचार जैन-दर्शन में 'पाश्रव' तत्व के निरुपण द्वारा किया गया है। जीव और कर्मों का बन्ध तभी सम्भव है जब जीव में कर्म पुद्गलों का आगमन हो। अतः कर्मों के पाने के द्वार को 'पाश्रव' कहते हैं। वह द्वार जीव की ही एक शक्ति है जिसे योग कहते हैं। हम मन के द्वारा जो कुछ सोचते हैं, वचन के द्वारा जो कुछ बोलते हैं और शरीर के द्वारा जो कुछ हलन-चलन करते हैं वह सब कर्मों के आने में कारण है । इस मन, वचन और काय की क्रिया को योग कहा गया है । अतः स्पष्ट है, हमारा मन एवं पांचों इंद्रियां ही कर्मों के प्रागमन में प्रमुख कारण हैं । इन छहों की क्रियाओं (कर्म) द्वारा प्रात्मा का पुद्गल परमाणुओं से सम्पर्क होता है इसलिए इस सम्पर्क को 'कर्म' कहा गया है। प्रात्मा के साथ कर्म-सम्पर्क होने में मन का विशेष हाथ है। जीवन के सभी कार्य-व्यापार, चिंतन, मनन, इच्छा, स्नेह, घृणा आदि सभी कुछ मन के ऊपर ही निर्भर है। पांचों इंद्रियों पर इसी का शासन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462