Book Title: Jinvijay Muni Abhinandan Granth
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jinvijayji Samman Samiti Jaipur

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Page 454
________________ ३४४ ] प्रो. प्रेम सुमन जैन सम्बन्ध से व्यक्त होकर जीव पर अपना प्रभाव डालती है। और उसके प्रभाव से मुग्ध हा जीव ऐसे काम करता है जो सुखदायक व दुखःदायक होते हैं । यदि कर्म करते समय जीव के भाव अच्छे होते हैं तो बंधने वाले कर्म परमाणुनों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और बाद में उनका फल भी अच्छा होता है। तथा यदि बुरे भाव होते हैं तो बुरा असर पड़ता है और कालान्तर में उनका फल भी बुरा ही होता है। अतः स्पष्ट है कि हमारे भावों का असर कर्म-परमाणुओं पर पड़ता है। उसी के अनुसार उनका अच्छा-बुरा विपाक होता है। इस प्रकार जीव जैसे कर्म करने में स्वतन्त्र है, वैसे ही कर्मफल के भोगने में भी। कर्मों में परिवर्तन : यहां अब यह जिज्ञासा होती है कि जब कर्म निरन्तर बंधते और फल देते रहते हैं तो उन्हें हमेशा एक-सा ही होना चाहिए या तो अच्छा या बुरा । तब फिर कोई बुरे कर्मों को बांधने वाला जीव अच्छे कर्मों को किस प्रकार बांधेगा? जैन-दर्शन ने इन तमाम जिज्ञासाओं को भी समाधित किया है। _उक्त विवेचन में हमने देखा कि कर्म-परमाणुषों को जीव तक लाने का काम जीव की योग शक्ति करती है और उसके साथ बन्ध कराने का काम कषाय अर्थात् जीव के राग-द्वेष भाव करते हैं । इस तरह कर्मों में अनेक प्रकार का स्वभाव पड़ना तथा उनकी संख्या का कमती-बढ़ती होना योग पर निर्भर है। तथा कर्मों में जीव के साथ कम या अधिक काल तक ठहरने की शक्ति का पड़ना और तीव्र या मन्द फल देने की शक्ति का पड़ना कषाय पर निर्भर है। अब जैसा जिसका योग (मन-वचन-काय की क्रियाए) होगा और जैसी जिसकी कषाय (राग-द्वेष) होगी, वैसे ही उसके कर्म बंधेगे और वैसा ही उनका फल होगा । जैन-दर्शन में कर्मों की दस मुख्य क्रियाओं का प्रतिवादन किया गया है। कर्मों का बंध होना, उनके ठहरने एवं फल देन की शक्ति का बढ़ना, घटना, स्थित रहना, निश्चित समय में फल देना, समय से पूर्व फल देना, परस्पर सजातीय कर्मों में मिल जाना, फल देने की शक्ति को रोक देना, कर्म को घटने-बढ़ने न देना प्रादि । कर्मों की इन क्रियानों से स्पष्ट है कि बुरे कर्मों का बन्ध करने वाला जीव यदि अच्छे कर्म करने लग जाता है तो उसके पहले बांधे हुए बुरे कर्मों की स्थिति और फल दान-शक्ति अच्छे भावों के प्रभाव से घट जाती है । और अगर बुरे कर्मों का बन्ध करके उसके भाव और भी अधिक कलुषित हो जाते हैं तथा वह अधिक बुरे कर्म करने लग जाता है तो बुरे भावों का असर पाकर पहले बांधे हुए कर्मों की स्थिति और फलदान-शक्ति और भी अधिक बढ़ जाती है। इस उत्कर्षण और अपकर्षण के कारण ही कोई कम जल्द फल देता है और कोई देर में । किसी कर्म का फल तीव्र होता है और किसी का मन्द । अतः कर्म फल के भोग में समय की विषमता, तीव्रता, मन्दता आदि सभी कुछ जीव के योग एवं कषाय की मात्रा पर भी निर्भर है। कर्मों से मुक्ति : कर्म सिद्धान्त से सम्बन्धित अब अन्तिम प्रश्न और बच रहता है, वह है-इस विशाल कर्म बंधन की परम्परा से सर्वथा छूटकारा कैसे सम्भव है ? जैन दर्शन का परमतत्व, जीवन का अन्तिम एवं उत्कृष्ट लक्ष्य आदि सब कुछ उक्त प्रश्न के समाधान के रूप में प्रस्तुत किया गया है। .. .. जीव के साथ कर्मों के बन्धन में दो क्रियाएं होती हैं-कर्मों का पाना (पाश्रव) और बंध जाना (बन्ध) । अतः उसके छुटकारा में भी दो ही क्रियाएं अपेक्षित हैं-कर्मो के आगमन को रोक देना और पाये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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