Book Title: Jinvijay Muni Abhinandan Granth
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jinvijayji Samman Samiti Jaipur

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Page 458
________________ सत्यमेव जयते नानृतम् [ ३४८ सत्य एटले लौकिक सत्य अभिप्रेत होय छे। उपर प्रापेला मुण्डकमांना श्लोक मां सत्य, तप, सम्यज्ज्ञान अने ब्रह्मचर्य ए चार अात्म प्राप्ती ना साधनो कह्या छ । एमां ना सत्य अने तपनो उल्लेख श्वेताश्वतर मां पण छे (सत्येन् एव तपसा योऽनुपश्यति । १.१५) ए सिवाय साधन विषयक बीजु वाक्य : तस्माद् विषया तपसा चिन्तया च उपलभ्यते ब्रह्म । (मैत्रि. ४-४ विगेरे) ब्रह्म प्राप्ति ना ए साधनो नी उत्पत्ति अक्षर ब्रह्म थी ज थई छ (तस्माच्च देवा: वद्यासं प्रसूताः तपश्च श्रहा सत्यं ब्रह्मचर्य विधिश्च । (मुण्डक २.१.७) प्रश्नोपनिषद् मां क्या साधनो ब्रह्म लोक मेलवा माटे सफल थाय छे अने क्या थता नथी ए स्पष्ट रीते बताव्यु छः तेषान् एव ब्रह्मलोको येषां तपो ब्रह्मचर्य, येषु सत्य प्रतिष्ठितम् । "न येषु जिह्मम् अनृत् न माया च इति । १.१५.६ तेमज मुण्डक मां (३.२.३) नायमात्मा प्रबचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रु तेन-एम जणाव्यु छ । परण प्रापरणे जे वाक्यनो अर्थ करबो छे ते श्लोक मां ऋषि पाखरे क्यां जई पहुंचे छे ते कह्य होवाथी पत्यनो अर्थ ब्रह्म लेवो पटे, साचु बोलवए नथी । उपनिषदो मां 'सत्य' शब्द ना जे प्रयोगो छे ते जोया पछी ग्रापरणे 'जी' शब्द ने लईये । छेक ऋग्वेद थी मांडा ए ध तूना मेलव, प्राप्त करवु 'तेमज' जीत विजय मेलववो एवा बन्ने अर्थों संभवे छे। उपनिषदो मां पण 'एकाद वस्त मेलकवी। एअर्थ जी धातनो प्रयोग जीवा मां पावे छे 'लोके जयति' के संलोकतां जयति-एवा प्रयोगो उपनिषदो मां घरणीवार आवे छे-तंत लोके जयते तांश्च कामान्' एम मुण्डक मांज (३.१.१०) कह्य छे, अने त्यां 'जयते' नो मेलवे छे, प्राप्त करे छे एज अर्थ ए चोक्खु छ । आ वाक्य मां प्रावतां 'कामान् जयते' ने बदले छांदोग्य मां पावता 'पाप्नोति सर्वान् कामान् (७.१०) ए शब्दो पण एज वस्तु बतावे छे । सामविषयक गूढार्थना उकेल करता बखते एकवीस अक्षरो वडे प्रादित्य प्राप्ति थाय छ। अने बावीसमा अक्षरे आदित्यमी जे पर छे ते मल छे ए करती बखते 'जयति' अने 'प्राप्नोति' ना जे प्रयोगो छे ते परथी आ हकीकत वधारे स्पष्ट थाय छः एकविंशत्या अादित्यम्' प्राप्नोति' ।"द्वाबिशेन परम् आदित्यात् जयति तत्नाकम् तद् विशोकम् (छां.२.१०.५.) । ए पर थी 'सत्यमेव जयते' ए वाक्य मां 'सत्य' एटले 'प्रतिम सत्य' अथवा 'ब्रह्म' अने जयते 'मेलवे छे' एवा अर्थो लेवा मां कोई वाँधो न थी ए वस्तु ध्यान मां पावशे। __'सत्यमेव जयते'-ए श्रति वाक्य पर श्रीशंकराचार्य लखेछः सत्यमेव सत्यवान एव जयते जयति, न अनृतं न अनृनवादी इत्यर्थः। नहि सत्यानृतयोः केवल यो: पुरुषानाश्रितयोः जयः पराजयोवा संभवति । प्रसिद्ध लोके सत्यवादिना अनृतवादी अभिभूयते न विपर्यय-। अत: सिद्ध सत्यस्य बलवत्साधनत्वम् । एपर थी प्राचार्य श्री वेपण मात्र सत्य तरफ कर्तृत्व प्रापवामां अडचण लागी अने तेथी तेमणे सत्यम्-सत्यवादी पुरुष एवो अर्थ लीधो । पण तेम छता एमणो सत्यने वाक्य नो कर्ता मान्यो अने जयते नो अर्थ जयथाय छे एवो लीवो तेथी उपर ना वाक्यनो 'सत्यनोज सदा जय थाय छ। एवो लौकिक अर्थ एमने अभिप्रेत छ। एमना मतव्य प्रमाणे एम कहेवानु” कारण सत्यनी उत्तम साधन तरीके प्रशंसा करवी एछ । पण एनी जरूर गणाती न थी। कारण या उपनिषद जे ऋषिप्रोन अक्षर प्राप्ति तत्व ज्ञान रूप जे पराविद्या तेथी थई शके छे । लोकिक जय के पराजय ए बधु अपर विद्या मां प्रावी शके, ते मुण्डको ने केटला उपनिषत् मां स्थान न थी। ए उपदेश ग्रहण १. मण्डक उपनिषद मां प्रापेला ब्रह्मविद्या माथानु मुण्डन करी अरण्य मा रहेवारा प्रो माटे हती एव तेषामेव एता ब्रह्मविद्या वदेन शिरो व्रतं विधिवत् पैस्तु चीर्णम् [३, २,१०] ए वाक्य परथी लागे छ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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