Book Title: Jinvijay Muni Abhinandan Granth
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jinvijayji Samman Samiti Jaipur

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Page 420
________________ ३१० ] संस्कृत की शतक - परम्परा अनुवाद के आधार पर थामस ने दोनों शतकों का फ्रेंच रूपान्तर प्रस्तुत किया (एम्सम, १६७० ) । भर्तृहरि के समस्तं पद्यों का प्राचीनतम मुद्रित संस्करण विलियम कैरी का है, जो हितोपदेश के संग से रामपुर से १८०३-४ ई० में प्रकाशित हुआ था इसकी एक प्रति इण्डिया प्रॉफिस में सुरक्षित है। इसके पश्चात् भारत तथा विदेशों में शतकत्रय के अनेक संस्करण तथा देशी-विदेशी भाषात्रों में अनेक अनुवाद प्रकाशित हुए। बॉन व्होलेन ने बलिन से इसका सम्पादन (१८३३ ई०) तथा जर्मन में अविकल पद्यानुवाद किया (१८३५ ई०) । हरिलाल द्वारा सम्पादित शतकत्रय दिवाकर प्रेस बनारस से १८६० में प्रकाशित हुए । भर्तृहरि का यह प्राचीनतम भारतीय संस्करण है घलवर- महाराज के संग्रह में सुरक्षित पाण्डुलिपि इसी की विकृत प्रति है । हिन्दी में भर्तृहरि का सर्वाधिक लोकप्रिय अनुवाद राणा प्रतापसिंह कृत पद्यानुवाद है (१८ वीं शताब्दी) शृङ्गारशतक का गद्यानुवाद हिन्दी में सब से प्राचीन है (१६२७) । & भर्तृहरि के शतकों के आधुनिक समीक्षात्मक सस्करणों का प्रारम्भ कान्तानाथ तैलंग के संस्करण से हुआ, जो सन् १८६३ में बम्बई से प्रकाशित हुआ था । अब भी इन शतकों के सामूहिक अथवा स्वतन्त्र प्रकाशन और अनुवाद होते रहते हैं । परन्तु सर्वोत्तम तथा स्तुत्य कार्य प्रो० कोसम्बी ने किया। उन्होंने ३७७ हस्तलिखित प्रतियों तथा उपलब्ध संस्करणों के पर्यालोचन के आधार पर भर्तृहरि के समस्त उपलब्ध पद्यों का परम वैज्ञानिक संस्करण विस्तृत भूमिका सहित प्रकाशित किया है ( भारतीय विद्या भवन, बम्बई, १९४७) शतकत्रय पर विभिन्न समय में अनेक टीकाएं लिखी गई। जैन विद्वान् धनसार की टीका प्राचीनतम है (१४७८ ई०) । इन शतकों की सबसे प्राचीन प्राप्य प्रति भी एक जैन विद्वान्, प्रतिष्ठा सोमगरिण, द्वारा की गयी थी ( १४४० ई० ) (४) मयूर का सूर्यशतक (सातवीं शताब्दी) स्तोष-साहित्य की प्रग्रणी कृति है। इसमें क्रमशः सूर्य की किरणों, उसके अश्वों, सारथि, रथ तथा बिम्ब की अत्यन्त प्रौढ़ तथा अलंकृत शैली में स्तुति की गई है । शतक का प्रत्येक पद्य प्राशी: रूप है । कल्याण, धन प्राप्ति अथवा शत्रु एवं प्रपत्तियों के विनाश की कामना शतक में सर्वत्र की गई है। अन्तिम पद्य (१०१ ) में सूर्यशतक की रचना का मुख्य प्रयोजन 'लोकमंगल' बतलाया गया है (श्लोका लोकस्य भुत्यै शतमिति रचिताः श्री मयूरेण भक्त्या ) । संग्रधरा वृत्तों में रचित शतकों की परम्परा का प्रवर्तन सूर्यशतक से ही हुआ है । सूर्यशतक के सात संस्करण ज्ञात हैं, तथा भिन्न-भिन्न समय में इस पर २२ टीकाएं लिखी गयी। सूर्य शतकं का सर्वप्रथम अनुवाद डा० कार्लो वर्नंहीमर ने इतालवी भाषा में किया जो 'सूर्य शतक डि मयूरे ' नाम से १६०५ में प्रकाशित हुआ। क्वेनबास ने The Sanskrit Poems of Mayura में सूर्य शतक, मयूराष्टक तथा बाणकृत चण्डीशतक का सम्पादन तथा अंग्रेजी में अनुवाद किया (१९१७) । इसके पश्चात् सूर्यशतक रमाकान्त त्रिपाठी के हिन्दी अनुवाद सहित, १९६४ में चौखम्बा भवन, वाराणसी प्रकाशित हुआ । ६. R. P. Dewhurst ने इसे उत्तर प्रदेश इतिहास समिति की शोध पत्रिका की प्रथम जिल्द । १९१७ ) में प्रकाशित किया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only Q www.jainelibrary.org

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