Book Title: Jinvijay Muni Abhinandan Granth
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jinvijayji Samman Samiti Jaipur

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Page 424
________________ ३१४ ] संस्कृत की शतक-परम्परा षण्मुखसेव्यस्य विभोः सर्वाङ्ग ऽलंकृतित्वमापन्नाः । पन्नागपतयः सर्वे वीक्षन्ते गणपति भीताः ।। स्कन्दवाहनमयूरदर्शनमीताः शुण्डादण्डप्रवेशाय । नागराज के नाम से एक अन्य रचना (१६) "शृङ्गारशतक' भी प्रचलित है।' नागराज का समय अज्ञात है। काव्यमाला के पञ्चम गुच्छक में पञ्चशती के अन्तर्गत पांच स्रोतकाव्य-(२०-२४) कटाक्षशतक, मन्दस्मितशतक, पादारविन्दशतक, प्रायशतक तथा स्तुतिशतक- प्रकाशित हुए। कटाक्ष, मन्दस्मित तथा आर्याशतक में सौ-सौ पद्य हैं, शेष दो में १०१ । इनका रचयिता मूककवि है, जो नाम की अपेक्षा उपाधि प्रतीत होती है। प्रथम तीन शतकों में काञ्ची की अधिष्ठात्री देवी कामाख्या के कटाक्ष, स्मित तथा चरणकमलों की स्तुति की गई है । अन्य दो में देवी की सामान्य स्तुति है । मूक कवि का स्थितिकाल अज्ञात है । जीवानन्द ने इन शतकों को कलकत्ता से प्रकाशित करना प्रारम्भ किया था, किन्तु पांचवां शतक उपलब्ध न होने के कारण, संख्यापूर्ति के निमित्त, उन्हें इस श्रेणी में (२५) माहिषशतक प्रकाशित करना पड़ा। विभिन्न हस्तलिखित प्रतियों में शतकों का क्रम भिन्न-भिन्न है।। मुककवि की रचना साधारण कोटि की है। कहीं-कहीं अनुप्रास का विलास अवश्य अवलोकनीय है। कुछ पद्य उद्धृत किये जाते हैं। आर्याशतक : मधुरधनुषा महीधरजनुषा नन्दामि सुरभि बाणजुषा । चिवपूषा काञ्चिपुरे केलिजुषा बन्धूजीवकान्तिमूषा ।।७।। प्रणतजनतापवर्गा कृतरणसर्गा ससिंहसंसर्गा । कामाक्षि मुदितभर्गा हरिपुवर्गा त्वमेव सा दुर्गा ।।७।। स्तुतिशतक : कवीन्द्रहृदये चरी परिगृहीतकाञ्चीपुरी निरूटकरुणाझरी निखिललोकरक्षाकरी। मनः पथदवीयसी मदनशासनप्रेयसी महागुरणगरीयसी मम दृशोऽस्तु नेदीयसी ।।४।। अन्योक्तिपरक काव्यों की परम्परा में भट्ट वीरेश्वर का (२६) अन्योक्तिशतक रोचक कृति है। भ्रमर, चन्दन, भेक, पिक आदि परम्परामुक्त प्रतीकों को लेकर भी कवि ने सुन्दर अन्योक्तियों की रचना की है। भ्रमर को यदि चम्पक-कलि से अनुराग नहीं, तो क्या हानि ! वे मृगनयनी बालाएं कुशल रहें जो केलिगृह की देहली पर बैठकर उसे अपना कर्णाभूषण बनाती हैं। १०. Winternitz : History of Indian Literature, Vol. III, partI, Foot Note l,P 163. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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