Book Title: Jinvijay Muni Abhinandan Granth
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jinvijayji Samman Samiti Jaipur

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Page 444
________________ ३३४ ] सत्यनारायण स्वामी प्रेम. प्र. महावीर, सगर राजा, ब्रह्मदत्त, सनत्कुमार, कृष्ण, १ रावण,२ राम, कंडरीक, कोरिणक, मुज,४ ढंढरण ऋषि,५ सेलग प्राचार्य, नंदिषेण, सुकुमालिका आदि अनेक सतियां इत्यादि इत्यादि । अंत में से क्लिष्ट कर्मों के क्लेश से बचने के लिये कविवर ने इस छत्तीसी का श्रवण करना और धर्मकृत्यों का सेवन करना हितकर बतलाया है। करम छत्तीसी काने सुरिण नइ, करजो व्रत पच्चखाण जी। समयसुदर कहई सिव सुख लहिस्यउ, धर्म तणो परमाण जी ।।३६।। (५) पुण्य छत्तीसी प्रस्तुत छत्तीसी की रचना महाकवि ने संवत् १६६६ में सिद्धपुर में की।६। रचना में कुल ३६ पद्य हैं जिनमें पुण्यकृत्यों का माहात्म्य प्रदर्शित है। रचना के माध्यम से कवि समाज में पुण्य-कृत्यों का प्रचार-प्रसार करता दृष्टिगत होता है । कवि का यह उद्देश्य कृति के प्रथम पद्य में स्पष्ट रूप से परिलक्षित है पुण्य तणा फल परतिख देखो, करो पुण्य सहु कोय जी। पुण्य करतां पाप पुलावे, जीव सुखी जग होय जी ।।१।। वर्ण्य-विषय अरिहंत देव द्वारा निरूपित पुण्य के निम्नांकित रूपों का उल्लेख करके कवि ने उन अनेक पुण्यात्माओं का अपनी कृति में नाम-निर्देश किया है जिन्होंने पुण्यकृत्यों के संयोग से अपार आनंद, ऋद्धि-समृद्धि और मोक्ष की प्राप्ति की-अभयदान, अनुकंपादान, साधु-श्रावकों का धर्मपालन, तीर्थयात्रा करना, शीलसंयम का पालन और जप-तप तथा ध्यान धारण करना; नियम पूर्वक सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण एवं देव पूजन तथा गुरु सेवा करना आदि । कृष्णे कोण अवस्था पामी, दीठउ द्वारिका दाह जी। माता पिता पण काढी न सक्या, पाप राउ वन माह जी ।।१२।। राणउ रावण सबल कहातो, नव ग्रह कीघउ दास जी । लक्ष्मण लंका गढ़ लूटायो, दस सिर छेद्या तास जी ॥१३।। दसरथ राय दियो देशवटउ, राम रह्यउ वनवास जी । वलि वियोग पड्यउ सीतानउ, आठे पहर उदास जी ।।१४।। लुब्धो मुज मृगालवती सू, उज्जेनी नउ राव जी। भीख मंगावी सूली दीघउ, कर्णाट राय कहाय जी ।।१८।। कृष्ण पिता नर गुरु नेमीश्वर, द्वारिका ऋद्धि समृद्धि जी। ढंढरण ऋषि तिहां पाहार न पामइ. पूर्व कर्म प्रसिद्ध जी ॥२०॥ संवत् निधि दरसरण रस ससिहर, सिधपूर नगर मझार जी। शांतिनाथ सुप्रसादे कीधी, पुण्य छत्तीसी सार जी ।।३५।। (स. कृ. कु. पृ० ५४०, पुण्य छत्तीसी) ७. अभयदान सुपात्र अनोपम, वली अनुकंपा दान जी। साधु श्रावक धर्म तीरथ यात्रा, शील धर्म तप ध्यान जी ।। सामायिक पोषह पड़िकमरणो, देव पूजा गुरु सेव जी। पुण्य तणा ए भेद परुप्या, अरिहंत वीतराग देव जी ।।३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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