Book Title: Jinvijay Muni Abhinandan Granth
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jinvijayji Samman Samiti Jaipur

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Page 415
________________ ভাঁ সমাকৰ ঘন্সী [ ३०५ बाद में श्री कृष्णदासजी पयोहारी के शिष्य बनकर भगवान श्रीकृष्ण के उपासक बनगए थे। आमेर जाते समय संस्थापित बदरीनाथजी की डूंगरी आपके द्वारा ही बनवाई गई थी। आपकी पत्नी बालां बाई प्रसिद्ध कृष्ण भक्त थी तथा प्रतिदिन भगवान बद्रिकेश्वर के दर्शन करने जाया करती थी। इनके सम्बन्ध में अनेक जनश्र तियां हैं। मामेर में बालांबाई की साल' के नाम से आज मी एक स्थान है, जहां राजघराने के मांगलिक कार्य संपन्न होते थे। महाराज पृथ्वीराज के राज्याधिरूढ होने का समय इस काव्य में पद्य द्वारा प्रस्तुत किया गया है जो सभी इतिहास-ग्रन्थों से पुष्ट है । पद्य है "राज्यं प्राज्यतमं विभुज्य जनके स्वाराज्य भोगेशया स्वर्याते बहदायिनि थितनयः श्री चन्द्रसेने नृपः ।। अडखुश्वसनावनी परिमिते संवत्सरे वैक्रमे चक्र फाल्गुनकृष्ण कुण्डलितिथौ विप्ररसौ पार्थिवः ।।७७४॥" अङ्क-६, इषु-५, श्वसन-५ अवनि-१ अङ्गानां वामतो गतिः-१५५६ विक्रम संवत्-फाल्गुन कृष्णा कुण्डलि-सर्पांचमी तिथि को इनका राज्याभिषक हुअा था। इस काव्य में इनके विषय में कोई विशेष उल्लेख नहीं है। इनके 8 रानियां थी, १८ पुत्र थे तथा ८ मास २१ दिन राज्य किया था इसका उल्लेख है। इनके पश्चात इनके ज्येष्ठ पुत्र श्री पूर्णमल आमेर की गद्दी पर बैठे थे, इस दिन कार्तिक शुक्ला ११ थी। वंशावलियों में इनके १६ पुत्र बतलाये हैं जबकि इस काव्य में १८ का ही उल्लेख है। रानियों के संबन्ध में भी लिखा है कि बालांवाई के अतिरिक्त ६ थीं परन्तु यह इतिहास से असत्य सिद्ध है । बालांबाई का नाम अपूर्व देवी था। यही भ्रांति संख्या में वृद्धि करती है । इतिहास में लिखा है "पृथ्वीराज जी के राणी-(१) भागवती (बडगुजर जी) देवती के राजा जैता की, (२) पदारथदे (तंवर जी) भगवन्तराव गांवडी की (३) अपूर्वदेवी "बालाबाई" (राठौड़ जी) राव लूणकरण जी बीकानेर की (४) रूपावती (सोलंखरणी जी) राव लखानाथ टोडा की (५) जांबवती (सीसोदण जी) राणा रायमलजी उदयपुर की (६) रमादे (निर्वाण जी) रायसल अचला की (७) रमादे (हाडी जी) रावनरवद बूदी की (८) गौखदे (निर्वाण जी) धामदेव की और (8) नरबदा (गौड जी) खैरहथ की (पृ० ४२) "रामाभिर्विजहार भूरिनवभि । लब्धाङ्गकामद्य ति श्रीदश्री स्मरसुन्दरी सुरुचिभिः द्रोणी निजादे शुभा। नानप्रभवप्रसूननिकर स्वामोद मक्तालिका अध्युष्येन्दुमरीचि रोचितरू श्री चन्द्रसेनात्मजः ।।७४५॥" 'पुत्रों के विषय में लिखा है 'तस्याष्टादशतुष्टिदाजनहृदां पुत्राः वभूवुः शुभा. मित्राभासुहृदां हृदम्बुजवने शूरारणोत्साहिकः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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