Book Title: Jinvijay Muni Abhinandan Granth
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jinvijayji Samman Samiti Jaipur

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Page 400
________________ २६० ] पृथ्वीराज विजय-एक ऐतिहासिक महाकाव्य प्रादायाभि जगाम धाम अपरं विभ्रत्स धीरोत्तमो माची नामपुरी परैरविजितां जेतु जनेशात्मज" ॥६३७।। "प्रारूह्योरूजवं महाश्वमभितो वीरैरनेकै तो भिन्दन्नापततोसिपाणि रहितान् वीरानि भारोहिणः । कुम्भे दन्तयुगे च वाजिचरणानच्चैरिभानां दधत् वाहस्याशु जघान वारिणि गजो दीर्घास्तरङ्गानिव" ॥६४२।। xxx "एवं गर्जति सिंहराजतनये सिंहायमाने . परं धर्म संबुवति व्यतीतसुकृता हित्वा रणं निषूणाः । द्राक्सर्वेपि तिरोदधुनिजबल रूद्धातन्दन्तीभिः ये साम्भीभूय रणांगणस्थविजयो रेजे सहायोऽपि सः" ॥६४६।। युद्ध में विजय प्राप्त कर भगवती की स्तुति करते हैं । इसमें भगवती की गुणमहिमा वरिणत है "या भीतेन विरंचिना परिणुता हन्तु मधु कैटभम् विष्णु बोधयितु च नेत्रयुगलादाविर्बभूवाचिकम् । तस्यैषा विजयप्रदा निजपदं . संसेदुषोऽधीश्वरी पायान्तः शरणं रणाङ्गणगतानागत्य लोकाम्बिका" ॥६५२।। अन्तिम पद्य है "या सर्वाशयवेदिनी गुणमयी वेदैरशेषता चिद्रूपा च परावरान्तरचरी चित्तादि संचारिणी। सा माता जगतां मतिर्मतिमतां मां तिग्महेति क्षतं । चक्षुर्गोचरतामुपेत्य सदया पातात्पतन्तं शिवा ॥६६०।। स्तुति से प्रसन्न होकर भगवती ने दर्शन दिये । राजा सोढदेव के पुत्र दुलहराय को में संबोधन करती हुई उसने राजा की प्रसंशा की और उसे आशीर्वाद प्रदान किया “एवं दुर्गतिहारिणी रणगते दुर्गा प्रणम्यावनी पित्सत्यंगुलिकास्ति तत्सामयुगे व्यादीयमानवणे। (?) तस्मिन वीरवरे विमुह्यति महो विध्वंसितध्वान्तिका भक्तत्राणमहाबतासकरुणा प्रादुर्वभूवाम्बिका ।।६६१।।" + "मापप्तो विभुहोऽपि तप्तहृदय प्रोदग्रतापावली वेलेव प्रतिरोद्धमम्बुधि चलकल्लोकं भालामहम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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