Book Title: Jinvijay Muni Abhinandan Granth
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jinvijayji Samman Samiti Jaipur

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Page 392
________________ २८२ ] भारतीय संगीतशास्त्र में मार्ग और देशी का विभाजन नृते: क्यप्प्रत्यये नृत्यशब्दः कर्म विवक्षया । भावोपसर्जनो यत्र रसो मुख्यः प्रकाशते ।।४४५।। तन्नाट्यपूर्वकं नृत्यं मार्गनृत्यं तदुच्यते । रसोपसर्जनीभूतो यत्र भावः प्रकाशते ।।४४६।। मार्गों मावाभिधस्तस्मान्मृग्यतेऽत्र रसो पतः । नाट्यमार्गोपाधिभिन्न द्विधा नृत्यमुदीरितम् ।।४४७।। नृतेः क्तप्रत्यये रूपं देशीनृत्तमिहोदितम् ।।४४८।। नन्वत्र प्रत्ययैकार्थे मार्ग देशीति का भिदा । उच्यतेऽत्र तदैक्येऽपि यो यत्र विनियुज्यते । विवक्षावशतो ब्रते स तमर्थमिति स्थितम् ।।४४६।। पंकजत्वे समानेऽपि लोके पद्म तदीरितम् । विवक्षा चात्र शोभायां हस्ते हस्तैकदेशवत् ॥४५०।। नृत्ये नृत्यैकदेशेऽपि नृत्यशब्दाद् द्वयोर्ग्रहः ।।४५१।। (संगीतराज,नृत्यरत्नकोश, उल्लास १, परीक्षण १) ऊपर द्वितीय उद्धरण में 'गान्धर्व' को मार्ग का पर्यायवाची मान कर उसे अपौरुषेय कहा गया है, और 'गान' को देशी का पर्यायवाची मान कर उसका पौरुषेयत्व बताया गया है। गीत-प्रबन्धक के प्रकरण में मार्ग-देशी की यह विभाजक रेखा उचित भी है। तीसरा उद्धरण राग के प्रसंग का है। इस में मार्ग से संबद्ध ग्राम-रागों में नियमों की अपरिवर्तनीयता कही गई है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि ग्रामरागों का नाट्य के प्रसंग में हो प्रयोग विहित है, किन्तु देशी रागों का प्रयोग नाट्य से स्वतन्त्र कहा गया है। चौथा उद्धरण नृत्य-संबन्धी है, और उस पर विशेष विचार अपेक्षित है। नृत्य का मार्ग के साथ एवं नृत्त का देशी के साथ सम्बन्ध जोड़ा गया है। नाट्य को इन दोनों के ऊपर सर्वोच्च स्थान दिया गया है। इस स्तर निर्धारण का प्राधार है-नाट्य में रस की मुख्यता एवं नृत्य में भाव की मुख्यता के साथ-साथ रस का मार्ग अथवा अन्वेषण । नृत्त को देशी क्यों कहा है, इस की कोई स्पष्टता नहीं दी गई है, किन्तु उस में ताल लयाश्रित गात्रविक्षेप मात्र और अभिनय का अभाव बताया गया है। इसीलिये उसमें रस और भाव दोनों की अपेक्षा छोड़ कर केवल ताल, लय का ही प्राधान्य रखा जाता है । यथा नाट्यशब्दो रसे मुख्यो रसाभिव्यक्तिकारणम् । चतुर्धाभिनयोपेतं लक्षणावृत्तितो बुधैः ॥१७॥ आङ्गिकाभिनयैरेव भावानेव व्यनक्ति यत् । तन्नृत्यं मार्गशब्देन प्रसिद्ध नृत्यवेदिनाम् ॥२६।। गात्रविक्षेपमात्र तु सर्वाभिनयजितम् । आङ्गिकोक्तप्रकारेण नृत्त नृत्तविदो विदुः ।।२७॥ (संगीतरत्नाकरनृत्याध्याय) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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