Book Title: Jinabhashita 2009 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 5
________________ मायागता चूलिका १. "मायागया---इंदजालं वण्णेदि।" (धवला / ष.खं./ पु. १ / १, १, २ / पृ. १४४)। अनुवाद- मायागता चूलिका माया अर्थात् इन्द्रजाल (जादू) के कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चण का वर्णन करती है। २. "मायागतायां--- मायाकरणहेतुविद्या-मन्त्र-तन्त्र-तपांसि निरूप्यन्ते।" (धवला / ष.खं./ पु.९/४, १,४५/पृ.२१०)। अनुवाद- मायागता चूलिका में माया (जादू) करने की हेतुभूत विद्या, मंत्र, तंत्र और तप का निरूपण किया जाता है। रूपगता चूलिका १. "रूवगया---सीह-हय हरिणादि-रूवायारेण परिणमणहेदु-मंत्र-तंत-तवच्छरणाणि, चित्त-कट्ट-लेप्पलेण-कम्मादिलक्खणं च वण्णेदि।" (धवला / ष.खं./पु.१ / १,१,२ / पृ. ११४)। अनुवाद- रूपगता चूलिका में सिंह, घोड़ा हरिणादि के रूपाकार में परिणमन के हेतु मंत्र, तंत्र और तपश्चरण का तथा चित्रकर्म, काष्ठकर्म, लेप्यकर्म और लेनकर्म आदि के लक्षण का वर्णन करती है। २. "रूपगतायां---चेतनाचेतनद्रव्याणां रूपपरावर्तनहेतुविद्या-मंत्र-तंत्रतपांसि नरेन्द्रवाद-चित्र-चित्राभासादयश्च निरूप्यन्ते।" (धवला / ष. खं./ पु.९ / ४ , १, ४५ / पृ. २१०)। अनुवाद- रूपगता चूलिका में चेतन और अचेतन द्रव्यों के रूप बदलने की कारणभूत विद्या, मंत्र, तंत्र एवं तप का तथा नरेन्द्रवाद, चित्र और चित्राभासादि का निरूपण किया जाता है। ३. "रूपगता चूलिका सिंहकरितुरग---तपश्चरणादीन् चित्रकाष्ठलेप्योत्खननादिलक्षण-धातुवादरसवाद-खन्यावादादींश्च वर्णयति।" (गो.जी./ जी.त.प्र./भाग २ / गा.३६१-३६२)। अनुवाद- रूपगता चूलिका सिंह, हाथी घोड़ा --- आदि के रूप बदलने में कारणभूत मंत्र, तंत्र तपश्चरण आदि का तथा चित्र, काष्ठ, लेप्य, उत्खनन आदि के लक्षण एवं धातुवाद, रसवाद तथा खन्यावाद (खदान सम्बन्धी शास्त्र) का वर्णन करती है। आकाशगता चूलिका आकाशगतायां---आकाशगमनहेतुभूत-विद्या-मंत्र-तंत्र-तपोविशेषा निरूप्यन्ते।" (धवला/ष.खं./पु.९/ ४,१, ४५ / पृ. २१०)। अनुवाद- आकाशगता चूलिका में आकाशगमन की कारणभूत विद्या, मंत्र, तंत्र व तपविशेष का निरूपण किया जाता है। दृष्टिवाद के पूर्वगत नामक अधिकार में चौदह पूर्वो का वर्णन है। उनमें से १०वें विद्यानुवादपूर्व, ११वें कल्याणवादपूर्व, १२वें प्राणावाय (प्राणावाद) पूर्व एवं १३वें क्रियाविशालपूर्व में निम्नलिखित लौकिक शास्त्रों का वर्णन हैविद्यानुवाद पूर्व "विज्ञाणुवादं णाम पुव्वं--- अङ्गष्ठप्रसेनादीनां अल्पविद्यानां सप्तशतानि, रोहिण्यादीनां महाविद्यानां पञ्चशतानि अन्तरिक्ष-भौमाङ्ग-स्वर-स्वप्न-लक्षण-व्यञ्जनछिन्नान्यष्टौ महानिमित्तानि च कथयति।" (धवला/ ष.खं. / पु. १/१,१,२ / पृ.१२२)। ___अनुवाद- विद्यानुवादपूर्व अंगुष्ठप्रसेना आदि सात सौ अल्पविद्याओं का, रोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याओं का, और अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण व्यंजन एवं चिह्न, इन आठ महानिमित्तों का वर्णन करता जून 2009 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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