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अलावा और कुछ नहीं।
आचार्यश्री-(श्रोताओं की ओर) आप लोगों के "निष्क्रियाणि च" इसको आप निष्क्रिय न | लिए नहीं? हाँ, कोई बात नहीं। लेकिन मुनि महाराज कहिये। यह सूत्र बहुत अच्छा है। जिस दिशा में आप | के लिए, सबके लिए नहीं। को निष्क्रिय होना चाहिए उसमें निष्क्रिय होना चाहिए | यदि मान लो, आचार्य महाराज परीक्षण करना चाहें और जिस दिशा में सक्रिय होना चाहिए उसमें सक्रिय | कि कौन महाराज क्या कर रहे हैं। मूलाचार में पढ़ होना चाहिए। वह ऐसा कह रहा है। यह बहुत विचित्र | लो, आचार्य का क्या लक्षण है, 'आचरति, परान है। घड़ा बनाने में कुंभकार निमित्त नहीं और कुंभकार आचारयति इति आचार्यः।' यदि मानलो, शिष्य सोचने के उपादान कारण से भी घड़ा नहीं बना, कुंभकार के | लगे कि 'हमारा भी सामायिक का समय हो गया और द्वारा भी घड़ा नहीं बना। कमाल हो गया, इसी का नाम बड़े महाराज का भी समय हो गया। बड़े महाराज अब कुन्दकुन्द देव का समयसार है। कुंभकार निमित्त नहीं | सामायिक छोड़कर आ भी नहीं सकते।' ऐसा तो नहीं घड़ा बनाने का और जितने भी हैं, वे हैं ही नहीं। अब हो सकता, यदि नहीं आ सकते तो परीक्षा कैसे करेंगे। सोचो कुंभकार निमित्त भी नहीं, उपादान भी नहीं। फिर | 'यदि नहीं आयेंगे तो हमारे लिए सब छूट है।' इसलिए क्या है?
हमारा कहना है कि काल को कहाँ किस रूप में स्वीकार कुंभकार का योग और उपयोग ही वहाँ पर निमित्त किया है, इस पर चिन्तन करना प्रारंभ कर दो। है। हाँ, क्या है यह, सही बात बताओ। एक नहीं १०८ | शंका- क्या काल का संबंध द्रव्य की कुछ पर्यायों बार समयसार का अध्ययन हुआ। निमित्त कुछ नहीं करता | के साथ है? है। निमित्त कौन पकड़ रहा है। उसके योग और उपयोग। समाधान- ऐसा है, प्रत्येक द्रव्य में पर्याय पैदा योग, उसके हाथ में घड़े का आकार आ गया और उपयोग करने की क्षमता है। किन्तु उसका जो बाह्य निमित्त रूप में घड़े का आकार पहले आया। उपयोग में कुंभ का काल है उसका सहयोग नहीं मिलता, तो उसका परिणमन आकार आया, तभी उसने संकेत दिया हाथों को। हाँ, | उस रूप में नहीं होता है। यह निश्चित है। इसी प्रकार तो वह मिट्टी का लौंदा आगे है, तो घड़े के रूप में | धर्मास्तिकाय का अभाव हुआ तो ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने परिणत होगा, नहीं तो नहीं होगा। अब इसमें कोई काल | पर भी सिद्धपरमेष्ठी एक बाल मात्र भी आगे नहीं जा भी नहीं, न कुंभकार है, न ही उपादान, कोई कुछ नहीं। सकते। 'धर्मास्तिकायाभावात्' (त.सू. १०/८) यह सूत्र लौंदा उपादान है और कुंभकार निमित्त के रूप में स्वीकार है। धर्मास्तिकाय का अभाव होने से गमन का अभाव किया है। चूँकि कुंभकार के उपयोग का आधार कुंभकार | हो जाता है। यह अकाट्य नियम है। भीतर से उपादान है और हाथों के लिए कुंभ का आकार जो आया है | होते हुए भी निमित्त का यदि अभाव है तो परिणमन वही उसके लिए आधार है। उसकी बुद्धि ही सब काम | नहीं करेगा। वर्तनापरिणामक्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य' कर रही है। बुद्धि उसी पर निर्धारित है। कुन्दकुन्द देव (त.सू. ५/२२) इस सूत्र में पाँच विभाजन किये हैं। जो की जब यह बात सही है, ठीक बारह बजे हैं। बारह इस प्रकार हैंबजे का अर्थ क्या है? शयन नहीं करना। आहार करके वर्तना- यह निश्चल काल है, इसमें उपादान की आये हो, अब कोई दूसरा काम नहीं करोगे। विवक्षा है और परत्वापरत्व, परिणाम और क्रिया ये जितने
अपने दिमाग में बहुत अच्छी व्यवस्था रहती है, | भी हैं, ये सारे-के सारे व्यवहार काल के प्रतीक हैं। विश्राम कीजिये आप।
ऐसा सर्वार्थसिद्धि में उल्लेख किया है। निश्चय काल शंका- 'तत्कृतः कालविभागः' (त.सू. ४/१४) | के बिना व्यवहार काल नहीं हो सकता और व्यवहार इस सूत्र की फिर क्या उपयोगिता है, आचार्यश्री? | काल के बिना भी हम यह ज्ञात नहीं कर सकते कि
समाधान- 'तत्कृतः कालविभागः' होकर भी. | छह आवश्यक कब और कहाँ पर किये जायें। आचार्यों हमारा यह कहना है कि बारह बजे सामायिक का काल | ने आज्ञा दी है, उसका उल्लंघन नहीं करना। है। तो काल आ गया न? तो सामायिक किसके लिए, | जो वर्तना लक्षणवाला है, वह परमार्थ (निश्चय) . आप बताओ? श्रोता- मुनिमहाराज के लिए। | काल है। जो द्रव्यपरिवर्तन रूप है, वह व्यवहार रूप
14 जून 2009 जिनभाषित
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