Book Title: Jinabhashita 2009 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 33
________________ को खोल दिया, उसीप्रकार जिन प्रकृतियों का पूर्व में बंध । अधिकतम १२ वर्ष है। इसमें आराधक, आत्मा के अलावा किया था, उनको फल अर्थात् उदय में आने से पूर्व ही समस्त पर वस्तुओं से रागद्वेष आदि छोड़ता है और अपने अपकर्षण करके अन्य प्रकृतिरूप परिणमाकर नाश कर | शरीर की सेवा स्वयं भी करता है और दूसरों से भी कराता देना उद्वेलना संक्रमण है। जो जीव जिस समय उन | है। जिस दिन बारह वर्ष का काल पूरा होता है, उस दिन प्रकृतियों को नहीं बाँध रहा होता है और ना ही उनको | के उपरान्त मरण पर्यन्त तक चारों प्रकार के आहार का बाँधने की उस समय उसमें योग्यता होती है, उन ही | त्याग करता है। इसके दो भेद हैंप्रकृतियों की उद्वेलना होती है। उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ १.सविचार भक्तप्रत्याख्यान- इसमें आराधक अपने संघ को छोड़कर दूसरे संघ में जाकर सल्लेखना ग्रहण करता आहारकद्विक, सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यक्मिथ्यात्व | है। यह सल्लेखना बहुत काल वाद मरण होने तथा शीघ्र प्रकृति, देवद्विक (देवगति, देवगत्यानुपूर्वी), नरकद्विक, | मरण न होने की हालत में विचारपूर्वक उत्साह-सहित मनुष्यद्रिक, वैकियिकद्विक (वैकियिक-शरीर वैकियिक | धारण की जाती है। आंगोपांग), उच्च गोत्र। २. अविचार भक्तप्रत्याख्यान- जिस आराधक की इन प्रकृतियों की उद्वेलना सामान्यतः मिथ्यादृष्टि | आयु अधिक नहीं है और शीघ्र मरण होने वाला है, तथा जीव ही करते है। विशेष इस प्रकार है- १. आहारक द्रिक | दूसरे संघ में जाने का समय नहीं है और शक्ति भी नहीं की उद्वेलना कोई भी संयमी मुनि, असंयम को प्राप्त होकर | है, वह मुनि यह सल्लेखना ग्रहण करता है। इसके तीन अन्तमुहूर्त में प्रारंभ कर देता है। और जब तक वह असंयत भेद कहे गये हैंहै, और जब तक सत्कर्म से रहित है तब तक उद्वेलना (अ) निरुद्ध- दूसरे संघ में जाने की पैरों में सामर्थ्य करता रहता है। न रहे, शरीर थक जाये, अथवा घातक रोग, व्याधि या २.सम्यमिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति की उद्वेलना | उपसर्ग आदि आ जाये और अपने संघ में ही रुक जाए, कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त होते ही उस हालत में मुनि इस समाधिमरण को ग्रहण करता है। प्रारम्भ कर देता है। यदि उसकी सल्लेखना विख्यात हो जाती है तो प्रकाश ३. देवद्विक, नरकद्विक तथा वैकियिकद्विक इन | कहलाती है और यदि विख्यात नहीं होती है तो अप्रकाश प्रकृतियों की उद्वेलना एकेन्द्रिय व विकलत्रय जीव करते कहलाती है। हैं, क्योंकि उनके इन प्रकृतियों का न तो उदय है और (आ) निरुद्धतर- सर्प, अग्नि, व्याध्र आदि पशु, न बन्ध होता है। | व्यंतर तथा दुष्ट पुरुषों आदि के द्वारा मरण समय उपस्थित ४. मनुष्यद्विक तथा उच्चगोत्र की उद्वेलना हो जाने पर आयु का अन्त जानकर निकटवार्ती आचार्य अग्निकायिक व वायुकायिक जीव करते हैं। क्योंकि उनके आदि के समीप अपनी निन्दा, गर्हा आदि करता हुआ शरीर इन प्रकृतियों का न तो उदय है और न बंध ही संभव त्याग करता है, तो उसे निरुद्धतर अविचार भक्तप्रत्याख्यान समाधिमरण कहते हैं। विशेष जानकारी के लिए गोम्मटसार कर्मकाण्ड का (इ) परमनिरुद्ध- सर्प, सिंह आदि के भीषण उपद्रव आने पर वाणी रुक जाये, बोल न निकल सके, उद्वेलना प्रकरण पढ़ने योग्य है। जिज्ञास-सल्लेखना के भेद अच्छी प्रकार समझाइयें? ऐसे समय में मन में ही अरहन्तादि पंचरमेष्ठियों के प्रति अपनी आलोचना करता हुआ साधु शरीर का त्याग करता समाधान- उपर्युक्त जिज्ञासा का समाधान भगवती है, उसे परमनिरुद्ध अविचार भक्त प्रत्याख्यान सल्लेखना आराधना आदि ग्रन्थों के अनुसार यहाँ दिया जा रहा है। कहते हैं। सल्लेखना मरण तीन प्रकार का बताया गया है (उ) इंगिनी- जिस संल्लेखना में क्षपक अपने शरीर १. भक्तप्रत्याख्यान २. इंगिनी ३. प्रायोपगमन की परिचर्या स्वयं तो करता है, पर दूसरों से नहीं कराता १. भक्तप्रत्याख्यान- जिस सल्लेखना में अन्न-पान को कम करते हुए धीरे-धीरे छोड़ा जाता है, उसे भक्त है, उसे इंगिनीमरण कहते हैं। इसमें क्षपक स्वयं ही उठता है, स्वयं ही बैठता है, स्वयं ही लेटता है और अन्य समस्त प्रत्याख्यान कहते हैं। इसका न्यूनतम काल अन्तर्मुहूर्त और | | कियाएँ स्वयं ही करता है। - जून 2009 जिनभाषित 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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