________________ UPHIN/2006/16750 मुनि श्रीयोगसागर जी की कविताएँ हे आत्मन् ये तन नूतन नहीं है इस में परिवर्तन क्यों इतना यतन-जतन और कीर्तन तू मान रहा है रतन सा पर यह तो भग्न घर सा। है इसका अंत में पतन शकल दिल की नकल करती है अरे भाइयों यही एक अंतद्वन्द्व की पहचान है आत्मा की टोकरी में मीठे-मीठे अंगूर सड़ते जा रहे हैं शराब बनती जा रही है। उस शराब के पान में यह पतित आत्माएँ दिन रात निमग्न हैं हे भाई! व्यंग का रंग-ढंग और अंग भुजंग सा है जिसके दंश से क्रोध का जहर चढ़ता है और बैर की मूर्छा भव-भवांतर में चली जाती है। चंद दिन की जिंदगी में प्यार का बिगुल बजाओ तमाम अरमान मिटा के गले से गले लगाओ प्रस्तुति - प्रो० रतनचन्द्र जैन स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org