Book Title: Jinabhashita 2009 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 15
________________ एक होकर भी दोनों तरफ काम कर रहा है। मध्य दीपक । लेकिन उससे भी कुछ नहीं होता। बंध टूटने के लिए बन करके, एक के लिए मिथ्याज्ञान का कारण हो रहा | कारण, अपने परिणाम और आत्मपुरुषार्थ, वे करने चाहिए। है और एक के लिए सम्यग्ज्ञान का कारण हो रहा है। पारिणामिक भाव और काल के द्वारा बंध की प्रक्रिया अब मिथ्याज्ञानवाला कह रहा है कि मैं क्या कर नहीं टूटती है। ध्यान की विवक्षा में इसकी उपयोगिता सकता हूँ। क्योंकि 'कालोस्ति' आप यह बोल सकते | ज्यादा कही गई है, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में कहीं भी हैं। अब वह सम्यग्दृष्टि कहता है, तुम्हारा भाग्य ही नहीं कही गई है, लेकिन यह विषय काल का चल ऐसा है। वह भी सम्यग्दृष्टि है इसलिए कह रहा है। रहा है। इसलिए बाद में इन सब का स्पष्टीकरण देंगे। काल आ गया, भाग्य आ गया। बस, ये दोनों एक दूसरे । ध्यान एकाग्रता से प्राप्त होता है। अन्य जितने भावों में प्रविष्ट होंगे। दुनिया के कार्यों के लिए तो बुद्धि काम | को याद रखते हैं, वे सब कर्मों पर निर्भर होकर रह कर रही है। यह निश्चित है कि उसके द्विस्थानीय प्रकृतियों जाते हैं, कर्मों की ओर दृष्टि जाने में कारण होने से का उदय नहीं होता, तो वह जिनवाणी की प्ररूपणा करने | अन्य भावों को अपना ध्येय न बनाकर स्वभाव भाव की योग्यतावाला नहीं हो सकता। द्विस्थानीय में स्थान को अपना ध्येय बनाओ। इस प्रकार समयप्राभृत आदि क्या चीज है? न कुण्डलपुर है, न नैनागिरि है, न और में कुन्दकुन्द देव ने कहा है। लेकिन उसको सम्यग्दर्शन कोई चीज है, यह स्थान क्या है? जो कर्मों की अनुभाग | की प्राप्ति में कारण नहीं कहा है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति शक्ति होती है, उसे स्थान कहते हैं। यदि द्विस्थानीय, के लिए दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षय, क्षयोपशम कहा त्रिस्थानीय, चतुःस्थानीय अनुभाग बंध है, तो कोई सुन | है। उस ध्यान के लिए क्षायिक भाव को भी अपना नहीं सकता और सुना भी नहीं सकता। कुछ भी नहीं | विषय नहीं बनाया, ऐसा कहा है। क्योंकि क्षायिक भाव कर सकता। बस, उसकी चिकित्सा अलग ही होती है। को भी स्वभाव भाव नहीं कहा है। नियमसार में शंका भगवान् भी नहीं कर सकते। कोई भी नहीं कर सकता, | उठाई है कि स्वभाव भाव क्या है? केवल जानना देखना इसलिए कर्मसिद्धान्त को लेकर चलना चाहिए। प्रत्येक | ही स्वभाव भाव है, जो त्रैकालिक होता है। परिणमन यदि कर्म पर निर्भर है, तो पारिणामिकभाव शंका- क्या पारिणामिक भाव और स्वभाव भाव मोक्षमार्ग में कोई कार्य नहीं करता। यह यदि निश्चित | अलग-अलग हैं? है तो पारिणामिक भावों को ग्रन्थों में किसलिए याद किया समाधान- जो कर्म निरपेक्ष भाव होता है उसको है। कारण के रूप में याद नहीं किया, यह ध्यान रखो। पारिणामिक भाव कहते हैं। पारिणामिकभाव से मुक्ति नहीं मिलती, यह सिद्धान्त है। शंका- ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव और पारिणामिक भाव हमारा कहने का अभिप्राय यह है कि पारिणामिक | क्या अलग-अलग हैं? भाव न मुक्ति का कारण है और न बंध का कारण समाधान- हम यह कहना चाहते हैं कि वह है। औदयिक भाव कथञ्चित् बंध का कारण है और | पारिणामिक भाव किसी कर्म के उपशम, क्षय, क्षयोपशम क्षायोपशमिक आदि भाव मुक्ति के कारण हैं। यदि से नहीं होता है। इसलिए उन्होंने ज्ञाता द्रष्टा कहा। यदि हम कारण-कार्य की व्यवस्था को लेकर चल रहे हैं, केवलज्ञान को ग्रहण करते हैं. तो वह केवलज्ञानावरण तो वहाँ पर काल की बात नहीं कही है। अरे! कर्मोदय | कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है. इसलिए वह कर्मसापेक्ष ऐसा ही होना था, ऐसा भी नहीं। हो गया। अब काल की विवक्षा में पंडित जी की जो शंका- पारिणामिक भाव की क्या उपादेयता है? | शंका थी उसका निराकरण कर देता हूँ। समाधान- पारिणामिक भाव की उपादेयता यह | प्रात:काल, मध्याह्नकाल, सायंकाल आदि जो काल है कि हम स्वभाव को यदि दृष्टि में रखते हैं, तो बंध है. वह केवल छह आवश्यकों में फिट करना है और की प्रक्रिया में होनेवाला जो औदयिक भाव है, उसमें | रात्रि संबंधी जो आवश्यक हैं, उनमें फिट करना है। कमी आती है। बातें करने से कमी नहीं आती। निश्चय | काल को औपचारिक रूप में देकर नाप आदि की अपेक्षा और व्यवहार की चर्चा करने बैठे हैं। पहले एक बात | जानना चाहिए। जिस प्रकर ज्वर नापने का थर्मामीटर कही थी, कर्म सिद्धांत के सारे-के-सारे ग्रन्थ रट लिये, होता है उसी प्रकार काल को समझना चाहिए, इसके जून 2009 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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