Book Title: Jinabhashita 2009 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 26
________________ निगोदिया जीव एवं आधुनिक विज्ञान डॉ० अशोक कुमार जैन, ग्वालियर जैनधर्म अध्यात्म-परक धर्म है जहाँ आत्मा की। इनमें किसी किसी के तो सम्पूर्ण अवयव साधारण ही होते शुचिता को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। इस शुचिता को | हैं। मूली, अदरक, आलू अरबी आदि सब मूल (जडें) प्राप्त करने के लिए जैन धर्मगुरुओं ने मनुष्य को संसार | साधारण हैं, अनन्त जीवों का निवास होने से यह साधारण की वास्तविकता का बोध कराने का हर संभव प्रयत्न किया | वनस्पति अनन्तकायिक भी कहलाती है। जिस प्रत्येक है। प्रकृति का शायद ही कोई ऐसा तत्त्व हो, जो जैन | वनस्पति के आश्रित निगोदिया जीव होते हैं, वह सप्रतिष्ठितमनीषियों के ज्ञान से अछूता रहा हो। जगत में स्थित जड़ | प्रत्येक कहलाती है। जिसके आश्रित साधारण या निगोदिया और चेतन का अत्यन्त तर्कसंगत, व्यवहारिक और व्यवस्थित | जीव नहीं रहते, वह अप्रतिष्ठित-प्रत्येक कहलाती है। वर्णन जैनधर्म में मिलता है। मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, निगोदिया जीव सूक्ष्म और स्थूल (बादर) दो प्रकार के जल, अग्नि वायु और वनस्पति आदि जीवों से लेकर | होते हैं। सूक्ष्म निगोदिया जीव वे कहलाते हैं जो किसी अत्यन्त सूक्ष्म निगोदिया जीवों तक का वर्णन जैनआचार्यों | के द्वारा बाधित नहीं होते और न ही किसी को बाधा पहुँचाते ने किया है। हैं अर्थात् किसी के आश्रित नहीं रहते। इसलिए ये सर्वत्र आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से अभी तक ज्ञात | पाये जाते हैं। इन्हें इन्द्रियों द्वारा देखा नहीं जा सकता। बादर सूक्ष्मतम जीव जीवाणु (बैक्टीरिया) एवं विषाणु (वायरस) | (स्थूल) निगोदिया जीव बाधित होते हैं और बाधा भी हैं। निगोदिया जीवों की तरह यह भी जल, थल और नभ | पहुँचाते हैं, पर बादर (स्थूल) होने के बावजूद भी वास्तव में प्रत्येक स्थान पर मौजूद रहते हैं। माइक्रोप्लाज्मा भी | में ये भी इतने सूक्ष्म होते हैं कि सामान्य आँखों से दिखाई अत्यन्त सूक्ष्म जीव हैं। उक्त सूक्ष्म जीवों की तुलना जैनधर्म | नहीं पड़ते। इन साधारण कहे जानेवाले निगोदयिा जीवों में वर्णित निगोदिया जीवों से करने के विषय में गहन शोध | की अवगाहना घनांगुल के असंख्यातवें भाग या उससे भी और अध्ययन की आवश्यकता है। सूक्ष्म होती है। निगोदिया जीवों के साथ मुश्किल यह है जैनधर्म में निगोदिया जीव-निगोदिया जीव एकेन्द्रिय कि एक ही निगोद शरीर में जीवों के आवागमन का प्रवाह जीव हैं। इन्हें वनस्पतिकायिक के अन्तर्गत रखा गया है | निरंतर चलता रहता है। अतः यह पता लगाना आसान नहीं हालॉकि इनका पृथक अस्तित्त्व भी है। होता है कि कब पुराने जीव मर गये और कब अनन्त जो अनन्तों जीवों को एक निवास दे, उसे निगोद | नये जीवों की उत्पत्ति हो गयी। निगोदिया जीवों का आकार कहते हैं। इस निगोद शरीर में बसनेवाले अनन्त जीवों को | आयत-चतुस्र और गोल दोनों प्रकार का माना गया है। निगोदिया जीव कहते हैं, निगोदिया जीवों को जानने के | जैनधर्म के अनुसार जीवों का जन्म तीन प्रकार से लिए वनस्पतिकायिक जीवों का वर्गीकरण भी जानना होता है- सम्मूर्छन-जन्म, गर्भ-जन्म और उपपाद जन्म। आवश्यक है। यह दो प्रकार का है इधर-उधर के परमाणुओं के मिलने से तथा विभिन्न प्रकार प्रत्येक वनस्पति- जिनमें प्रत्येक जीव का अलग- के वातवरण से जीता अपने योग्य शरीर बना लेता है, तो अलग शरीर होता है। इसे सम्मूर्छन जन्म कहते हैं। निगोदिया जीवों का सम्मूर्छन ___ साधारण वनस्पति- जिनमें अनन्त जीवराशि का | | जन्म ही होता है। एक ही शरीर होता है। उस शरीर में उन अनन्त जीवों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इन चार स्थावर जीवों के का जन्म, मरण, श्वास-नि:श्वास क्रिया आदि सभी कार्य शरीर तथा देव शरीर, नारकी शरीर, आहारक शरीर और एक साथ समान रूप से होते हैं। कच्ची या अपरिपक्व केवली का शरीर, इन आठ शरीरों में निगोदिया जीव नहीं अवस्था में सभी वनस्पत्तियाँ साधारण ही रहती हैं। किसी | होते हैं। शेष सब शरीरों में बादर-निगोद जीव होते हैं। मांस पेड़ की जड़ साधारण होती है, किसी के पत्ते साधारण | आदि में उत्पन्न होनेवाले निगोदिया जीव उसी मांस की होते हैं, किसी के फूल साधारण होते हैं, किसी के पर्व | जाति के होते हैं अर्थात् उस मांस का जैसा वर्ण, रस, गन्ध (गांठ) का दूध अथवा किसी के फल साधारण होते हैं।। है, उसी तरह के उसमें बादर-निगोद जीव पैदा होते हैं। 24 जून 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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