Book Title: Jinabhashita 2009 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ का । उद्घाटन नहीं हो सकता। यह सिद्धान्त भी उतना ही बात कही जा रही है। करना चाहो तो आज भी कर | सत्य है। इसलिए "हेतुद्वयाविष्कृतकार्य-लिङ्गा' ऐसा सकते हो, चाहो तो। परन्तु हम तो काल के ऊपर निर्भर | समन्तभद्र महाराज जी ने कहा है। हमारे पास उपादान हो चके हैं। अब क्या करें। भाग्य को कोसना चाहिए, | है, उपादान का परिणमन अपनी योग्यता के अनुसार भाग्य में नहीं लिखा, नहीं, यह सब गड़बड़ है। बात | होता है, परन्तु बाहरी जो कारण हैं, उनके बिना नहीं करते ही काल आता है। हो सकता, यह सिद्धान्त है। इसको बिल्कुल स्वीकार "अलंध्यशक्तिर्भवितव्यतेयं, हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा। | कर लेना चाहिए। अनीश्वरो जन्तुरहं क्रियातः, संहत्य कार्येष्विति साध्ववादीः॥" | धवला जी में काल द्रव्य के बारे में कई बार (स्वयम्भूस्तोत्र-सुपार्श्वजिनस्तवनम् ३)| यह कथन आया है कि यह सम्यग्दर्शन की महिमा है समन्तभद्र महाराज गर्जना करते हैं- आ जाते तो | कि अनन्तकाल को उसने अर्ध पुद्गल परावर्तन मात्र पता नहीं क्या करते। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश | कर दिया। 'इसी समय होना था', 'एक समय में होना बंध ये चारों, कर्मों के भेद हैं। काल के माध्यम से | था'। ये सब चर्चायें आगम से विपरीत हैं। हमको कहने उसकी योग्यता इतनी ही रह सकती है। एक्सपायरी डेट... | में डर नहीं लगता, आपको डर लगता हो तो अलग काल की नहीं होती। एक्सपायरी डेट ऑफ काल ...क्या |बात की। कभी ऐसा लिखा हुआ मिलता है? | जीव काल के कारण भ्रमित नहीं होता, मोह के काल आदि के माध्यम से यह जाना जाता है, कारण भ्रमित होता है। यदि काल के कारण भ्रमित होते इसलिए काल पर तो यह आरोप आता है। इसके परिणाम | हैं तो सभी को होना चाहिए। काल असंख्यात है अर्थात् के माध्यम से काल ज्ञात हो जाता है। व्यवहारकाल का असंख्यात कालाणु हैं। क्या कहा, बताओ- काल द्रव्य उत्पत्तिस्रोत निश्चय काल है। वस्तुतः यह ध्यान रखना असंख्यात हैं, जीव अनन्त हैं और पुद्गल अनन्तानन्त काल कभी भी गणना में नहीं आता। यह हम लोगों हैं। अनन्त आकाश द्रव्य के लिए भी काल नियत है। की बद्धियों के माध्यम से 'इतने परिणमन के बाद इतने | तो यह सापेक्ष कथन है। घंटा होते हैं,' ऐसा हम गणना करके बता देते हैं, वस्तुतः यदि ऐसा होता तो उसके लिए ब्यौरा देते, लेकिन काल की गणना होती नहीं। बुद्धि की अपेक्षा तो गणना | कोई ब्यौरा नहीं मिलता। काल की महिमा नहीं, आत्मा हो ही नहीं सकती। जिस प्रकार कोई एक-एक अणु के रत्नत्रय की महिमा है। इसलिए जो व्यक्ति आज की गणना नहीं कर सकता, क्योंकि उसका एक-एक सम्यग्दर्शन को निश्चित कर देते हैं वे इसमें लगे हुए परिणमन पर्यायगत है। एकसमयवर्ती पर्याय की गणना | हैं कि काल मिल जायेगा तो अर्ध पदगल परावर्तन काल नहीं हो सकती। बुद्धि के द्वारा अतीत और अनागत दोनों | को हम किसी भी प्रकार से ठीक कर देंगे। क्या ठीक को मिला कर हमने उसके ऊपर आरोप लगा दिया। कर दोगे, कभी ठीक नहीं कर सकते। काल पर निर्भर तीन कालों की जब विवक्षा होती है, तब व्यवहार | नहीं होना चाहिए। काल, अर्धपुद्गलपरावर्तनकाल आदि का विश्लेषण किया "काल: कलिर्वा" इस पंक्ति में आये हुए 'वा' जा सकता है। वस्तुतः काल का विश्लेषण नहीं किया शब्द का अर्थ है कि काल पर ज्यादा थोपो नहीं। ' श्रोतुः' जा सकता। यह निश्चित बात है। का अभिप्राय और 'प्रवक्तः' का वचनाऽनय-निरपेक्ष वचनशंका- स्वचतुष्टय में जो काल शब्द का प्रयोग व्यवहार इनके ऊपर निर्भर है। अर्थ का अनर्थ हम कर हुआ है, वह किस सन्दर्भ में आया है? सकते हैं। ग्रहण करनेवाला भी कर सकता है। यह उसकी समाधान- 'कालस्तु हेयः' इस प्रकार आया है।| बद्धि पर निर्भर है। बद्धि मोह से भ्रमित है, काल के बाहर पर निर्भर होकर जो देख रहे है, उसके लिए कहा। द्वारा नहीं, काल के द्वारा कभी बुद्धि भ्रमित नहीं होती है। स्वकाल का अर्थ अपनी योग्यता है और अपने उपादान है। अब देखो, एक सम्यग्ज्ञानी है और वहीं पर बैठा से वर्तन करने की क्षमता प्रत्येक द्रव्य में है, वही द्रव्य | एक मिथ्याज्ञानी है। काल दोनों के बीच में एक है। का वर्तयिता है। किन्तु अन्य कारण. के बिना उसका | मान लो एक है और असंख्यात तो है ही। वह (कॉमन) 12 जून 2009 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36