Book Title: Jinabhashita 2009 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 12
________________ बहुत अच्छा आपका प्रश्न है, हमारे आवश्यकों में काल । कहना चाहता हूँ कि काल चेतना को उन्होंने स्वीकार नहीं आता। उम्र को गिनने के लिए तो स्थिति-बंध हुआ | नहीं किया। यदि काल चेतना स्वीकार की होती तो बहुत हुआ और उस स्थिति को बतानेवाला काल है। क्योंकि | अद्भुत बात हो जाती। लेकिन वह है नहीं, इसलिए परिणमन हमारे अन्दर हो रहा है। 'ज्या वयोहानौ' हमारे | उसको उन्होंने स्वीकार तक नहीं किया। काल के विषय कारण उसको बोलना चाहिए। में चिन्तन हो रहा है, यह निश्चित बात है। चिन्तन भी आयु-कर्म के एक-एक निषेक प्रतिसमय उसकी | बिना काल के नहीं हो सकता। काल के द्वारा हो रहा क्वान्टिटी और क्वालिटी के साथ निर्जरित हो रहे हैं। है, ऐसा नहीं 'कारीषोऽग्नि' जैसे उदासीन रूप से उस क्षय को प्राप्त हो रहे हैं। उसके माध्यम से वह नापा | कार्य में सहयोग करती है। उसी प्रकार देखो, उपाध्याय जा रहा है। हाँ इतने काल के बाद वे कर्म अंश रहेंगे | परमेष्ठी का काम कारीषोऽग्निः' से हुआ नहीं कह सकते, कैसे? इसलिए काल के ऊपर आरोप आ रहा है। वह | तो काल से हुआ कैसे कह सकते हैं? 'विद्या कालेन तो शुद्ध वर्गणा जैसा है। | पच्यते' इसका क्या अर्थ है? सुनो महाराज! बहुत संक्षेप शुक्ल लेश्यावाला पर्दा है। उसी प्रकार की प्रवृत्ति में हम कहना चाहते हैं। आपने जो कुछ भी खा लिया, काल द्रव्य की है। किन्तु उस पर्दे के ऊपर फिल्म की| उसी समय पचता नहीं। कोई भी परिवर्तन होता नहीं। छाया पड़ रही है। इसलिए आप उसी को सब कुछ औदारिक शरीर को धारण करनेवाले की अपेक्षा से कहा मान रहे हैं। खेल समाप्त हुआ, फिर कोई नहीं बैठता।| है। उसी प्रकार ज्यों ही आपने ग्रहण कर लिया, त्यों उस कार्य का भ्रम है आप लोगों को, वह कार्य काल ही वह शक्ति का रूप धारण कर लेता है, ऐसा भी के द्वारा संचालित है, ऐसा नहीं। अन्य द्रव्य जो (मैटर) | नहीं। क्षयोपशम दशा में क्रम से वह प्रौढ़ता आती चली पुद्गल और जीव हैं, ये अशुद्ध हैं। इनकी अशुद्धियों | जाती है, एक समय में नहीं आ सकती। काल का अर्थ का प्रभाव सब लोगों पर पड़ रहा है। वे ही कारण | वहाँ पर कुछ परिणमन हो और आपकी योग्यता में, प्रत्यय बन जाते हैं और मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि-आदि | क्षयोपशम में परिणमन हो, आदि-आदि अपेक्षित है। यह का जो विभाजन हो रहा है, यह सब कर्मों की देन | उपादान की योग्यता के लिए काल पर आरोप दिया है, काल की देन नहीं। इन सबमें जो सामान्य रूप से | है। एक छोटी सी बात कहकर समाप्त कर देता हूँ। परिणमन का कारण है, वह काल है। जैसे खिचडी आधा घंटे में पकती है. सन लिया 'वर्तनापरिणामक्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य' न, आधा घंटे में खिचड़ी पकती है, तो क्या करना चाहिए? (त.सू.५/२२) यह कहा, लेकिन यह ध्यान रखना, प्रत्येक | और कुछ नहीं, दाल मिला दो, चावल मिला दो, पानी द्रव्य अपनी पर्यायों को पैदा करने की क्षमता, उपादान मिला दो, घोल रख दो, और अग्नि पर रख दो, और शक्ति, योग्यता स्वयं रखता है। उसके उद्घाटन में वह | बंद कर दो, आधा घंटे में देख लेना पक जायेगी। एक कालद्रव्य निमित्त होने से वर्तयिता इस प्रकार कहा जाता | व्यक्ति ने सुन लिया और रख दी खिचड़ी पकने, दूसरे है। वस्तुतः अपने आप में काल द्रव्य वर्तयिता नहीं हो | व्यक्ति ने इसका आशय समझ लिया। ठीक है, उसने सकता। स्टोव या सिगड़ी के ऊपर ले जाकर रख दी। और आधा ___इसका स्पष्टीकरण सभी ग्रन्थों में दिया गया है। घंटे में आ जाना 'विद्या कालेन पच्यते' इसी तरह 'खिचड़ी काल को उदासीन कारण कहा जाता है। कोई भी कार्य | कालेन पच्यते' पक गई। चाहे सांसारिक हो या मुक्तिमार्ग संबंधी हो, वे सारे- अब वह देखता है अरे! क्यों नहीं पकी? गलत के-सारे कर्मों पर ही आधारित हैं। है 'विद्या कालेन पच्यते' ऐसा नहीं। 'काल' आधा घंटा चेतनात्रय में कालचेतना नहीं। जो रखा, उसे सिगड़ी के ऊपर रखना चाहिए। तब खिचड़ी चौथी बात यह है कि अपने यहाँ तीन चेतना | पकती है। 'कालेन पच्यते', काल के द्वारा ही कार्य हो बताई गई हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने कर्म-चेतना, | रहा है। इसलिए न मूंग डालो, न चावल डालो, न पानी कर्मफल-चेतना और ज्ञान चेतना का वर्णन पञ्चास्तिकाय | डालो और रख दो 'पच्यते खिचड़ी'। नहीं पकी, इसलिए में गाथा ३८-३९ में किया है। मैं इस समय इतना ही | काल को हौआ न बनाओ। 10 जून 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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