Book Title: Jinabhashita 2009 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ तृतीय अंश कालद्रव्य प्रभावक नहीं। ___ आचार्य श्री विद्यासागर जी इस प्रवचन के प्रथम एवं द्वितीय अंश आप 'जिनभाषित' के गत अकों में पढ़ चुके हैं। यहाँ ततीय अंश प्रस्तुत है। व्यवहारकाल होकर वे सोते नहीं। छह कारकों में काल को किस रूप में स्वीकारा चौबीस घंटा वहाँ पर यह काम चलता रहता है। गया है? उदाहरण के तौर पर काल का विश्लेषण करें, वहाँ पर चौबीस घंटे कैसे चलते हैं? यहाँ के चौबीस तो जैसे कुम्भकार के चाक के नीचे एक कील है, वैसे | घंटे वहाँ पर चलते हैं। ये जितने भी काल, व्यवहारकाल ही कील की भाँति काल उपस्थित है। वहाँ घूमने का हैं, वे जीव और पुद्गल के परिणमन पर आधारित हैं। काम काल का नहीं है। जैसे कहा है कुन्दकुन्द देव से लेकर अकलंकदेव तक न्यायविद जितने "सूरज चाँद छिपे निकले ऋतु फिर-फिर कर भी आचार्य हैं, सबने इसी रूप से स्वीकार किया है। आवे" काल नहीं आता, ऋतु आती है। ऋतु का नाम | व्यवहार काल की उत्पत्ति हम लोगों के द्वारा नहीं काल नहीं है, काल के ऊपर आरोप आता है। इसी | होती, किन्तु हमें केवल उसका ज्ञान होता है। घड़ी का प्रकार आपने जैसे कहा कि मध्याह्न-काल आप किसको | काँटा वहाँ से खिसका, एक घंटा हो गया। किन्तु वह कहते हैं? परिणमन इस काँटे में हुआ, न कि काल में, काल तो एक बहुत अच्छा बिन्दु पकड़ा आपने। छह अनन्त काल से विद्यमान है। काल आता है, यह कथन आवश्यकों में सामायिक का काल निर्धारित किया गया | ठीक नहीं, क्योंकि उसके पास पैर नहीं हैं। परिणमन है। काल निर्धारित नहीं किया गया है। चूँकि छह आवश्यक करता है। स्थान से स्थानान्तर नहीं जाता, इसका नाम निर्धारित किये गये हैं। अतः काल के माध्यम से ये | काल है।। ज्ञात हो जाते हैं। इनके माध्यम से वह काल जो निश्चय | इसलिए यह मान लो कि अपहरण के माध्यम काल से उत्पन्न हो रहा है, समयादिक उसका ज्ञापन से यहाँ पर 'सिद्ध' हो सकता है। यहाँ के कालाणु काम होता है। इससे ज्यादा और कुछ भी नहीं कहा है। | करेंगे, अन्यथा वहाँ के मुनिराजों को कालाणुओं को साथ - बारह बजे हैं। ये बारह बजे क्या वस्तु है? काल | में लेकर आना पड़ेगा। क्योंकि वहाँ पर (विदेह क्षेत्र हमेशा पकड़ में नहीं आनेवाली चीज है। बारह बज आदि में) काल का परिवर्तन नहीं होता है। काल का गये, इसका अर्थ घंटी लग गई। यह पुद्गल की परिणति | वहाँ पर कुछ प्रभाव है ही नहीं, हमेशा हमेशा मुक्ति है और हमने बुद्धि को पकड़ रखा है। सुबह उठे, वन्दना | है। की, फिर इसके उपरांत स्वाध्याय किया, फिर इसके अपहरण के द्वारा यहाँ पर भी पञ्चम काल में उपरांत आहार-चर्या की उतना काल छोड़ा, काल छोड़ा | मुक्ति होती है और आज भी वहाँ पर विजया की का अर्थ दूसरा कोई आवश्यक उसमें नियुक्त न हो जाय, तलहटी में चतुर्थ काल चल रहा है। वहाँ पर जाकर यह काल के ऊपर सिर्फ आरोप है, इसके अलावा यदि | अभी भी मुक्ति हो सकती है। उन्होंने कहा, विजयार्ध काल को पकड़ना चाहते हो तो पकड़ो। 'तिलोयपण्णत्ति' | के कोने में ऐसी व्यवस्था है। यदि आपको चाहिए, तो आदि ग्रन्थों में जो उल्लेख मिलता है कि स्वर्गों में काल | सबसे अच्छा है। क्योंकि आप लोग ज्योतिर्लोक जाने पकड़ में नहीं आता, चूँकि वहाँ पर रात भी नहीं, दिन | की तैयारी कर रहे हैं। तो सबसे अच्छा है कि विजया भी नहीं। दिन ही है वहाँ पर, दिन है, तो वहाँ पर | को पकड़ो। वहाँ पर मुक्त हो सकते हैं, लेकिन ध्यान काल का व्यवहार कैसा होता होगा, उनको सोना (शयन) | रखना, आप लोग मुक्त नहीं हो सकते हैं। है ही नहीं। उनको (देवों को) निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, यहाँ पर न योग्य संगति मिलती है और न ही स्त्यानगृद्धि आदि महानिद्राओं का उदय है ही नहीं, उदीरणा | आपके पास तत्सम्बन्धी सामग्री मिलती है, इसलिए मुक्ति भी नहीं होती। केवल निद्रा का उदय है। उससे प्रभावित | नहीं मिल सकती। काल के ऊपर आप चिन्तन कीजिये - जून 2009 जिनभाषित , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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