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ज्योतिष्कमन्त्रवादादिकं दृष्ट्वा --- ।" (द्र.सं./ टीका / गाथा ४१ ) ।
कुछ आधुनिक जैन वास्तुशास्त्री तर्क देते हैं कि वास्तुविद्या को वीरसेन स्वामी ने धवलाटीका में द्वादशांगश्रुत के अन्तर्गत बतलाया है और आदिपुराण ( पर्व १६ / श्लोक १२२ ) में आचार्य जिनसेन ने कहा है कि भगवान् ऋषभदेव ने गृहस्थावस्था में अपने पुत्र अनन्तविजय को विश्वकर्मा के मत ( तक्षककर्म - बढ़ईकर्म) और वास्तुविद्या (वास्तुकारकर्म) की शिक्षा दी थी, अतः वास्तुविद्या स्वसमय (जैनशास्त्र) है।
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यह तर्क तर्कसंगत नहीं है। पूर्व में सोदाहरण सिद्ध किया गया है कि जिस शास्त्र में षड्द्रव्य, सात तत्त्व आदि जैनसिद्धन्तों का वर्णन होता है, उसे ही स्वसमय (जैनशास्त्र) कहा गया है। वास्तुशास्त्र में इन जैनसिद्धान्तों का वर्णन नहीं है, अतः वह स्वसमय नहीं, अपितु परसमय (अजैनशास्त्र) है। यह तथ्य भी सामने लाया गया है कि द्वादशांगश्रुत के दृष्टिवाद अंग में केवल स्वसमय का कथन नहीं है, परसमय का भी कथन है और उसमें वर्णित मन्त्रतन्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेद, वास्तुविद्या, नृत्य, गीत, चित्रकला, कामशास्त्र आदि परसमय हैं, जिन्हें जैनाचार्यों ने दुःश्रुति, बाह्यशास्त्र एवं लौकिक शास्त्र नामों से अभिहित किया है। अतः वास्तुविद्या को स्वसमय ( जैनशास्त्र) कहना उक्त आगमप्रमाणों के विरुद्ध है ।
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दृष्टिवाद में इन्द्रजाल (जादू), मारण, उच्चाटन, वशीकरण आदि सम्बन्धी बहुरूपिणी, कात्यायनी आदि विद्याओं तथा नृत्यशास्त्र, गीतशास्त्र, कामशास्त्र आदि का भी कथन है तथा भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्र भरत को नृत्यशास्त्र, वृषभसेन को गान्धर्वशास्त्र (संगीतविद्या) और बाहुबली को धनुर्वेद तथा कामशास्त्र की शिक्षा दी थी। (आदिपुराण / पर्व १६ / श्लोक ११९ - १२४) । अतः उपर्युक्त तर्क से इन शास्त्रों को भी स्वसमय (जैनशास्त्र) मानना होगा। यदि इन्हें स्वसमय नहीं माना जा सकता, तो वास्तुशास्त्र को भी स्वसमय नहीं माना जा सकता। परसमय होते हुए भी जैन गृहस्थों के लिए उनका अध्ययन आदि सर्वथा हेय नहीं है, स्मरणीय सिर्फ यह है कि वे सब बाह्यशास्त्र या लौकिक शास्त्र हैं।
चूँकि वास्तुविद्या स्वसमय (जैनशास्त्र) नहीं है, अतः भगवान् ऋषभदेव द्वारा पढ़ाई गयी वास्तुविद्या में जैनतत्त्वविज्ञान एवं जैनकर्मसिद्धान्त की दृष्टि से कोई भी प्ररूपण होना असंभव है। धवला और आदिपुराण में भी वास्तुविद्या का केवल नामोल्लेख है, उसके किसी विशिष्ट स्वरूप का प्रतिपादन नहीं किया गया है, अतः स्पष्ट है कि वास्तुविद्या में केवल विविध भवनों की वैज्ञानिक एवं आकर्षक निर्माण शैलियों की दृष्टि से ही सारा वर्णन रहा होगा। आधुनिक टेक्निकल संस्थानों में पढ़ाये जानेवाले आर्किटेक्चर का जो स्वरूप है, वैसा ही स्वरूप धवला और आदिपुराण में उल्लिखित वास्तुविद्या का भी समझना चाहिए। जैसे आधुनिक आर्किटेक्चर (architecture) परसमय ( लौकिकशास्त्र) होते हुए भी, सभी गृहस्थों के लिए उपयोगी है, वैसे ही उक्त ग्रन्थों में वर्णित वास्तुविद्या परसमय होते हुए भी, जैन-अजैन सभी के लिए उपयोगी रही होगी। जैसे आधुनिक आर्किटेक्चर (वास्तुकला) में मनुष्यों को अदृश्यरूप से हानि-लाभ, सुख-दुःख पहुँचानेवाली या अपमृत्यु- अनपमृत्यु का कारण बननेवाली कोई दैवी या ईश्वरीय शक्ति अन्तर्निहित नहीं है, वैसे ही प्राचीन वस्तुविद्या में भी उसका अन्तर्निहित होना असंभव है।
जून 2009 जिनभाषित
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बुलबुले-नादाँ जरा फूल की सूरत
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रंगे-चमन से बनाये सैकड़ों
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- यगाना चंगेजी
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रतनचन्द्र जैन
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