Book Title: Jinabhashita 2009 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 8
________________ वत्तव्वं तदुभओ।" (ज. ध. / क.पा./ १ / पृ. १३६)। इसका स्पष्टीकरण करते हुए अनुवादक विद्वानों ने 'विशेषार्थ' में कहा है- "स्वसमय, परसमय और तदुभय के भेद से वक्तव्यता तीन प्रकार की है, इसका पहले कथन कर ही आये हैं। जिसमें केवल जैन मान्यताओं का वर्णन किया गया हो, उसका वक्तव्य स्वसमय (जैनमत) है। जिसमें जैनबाह्य मान्यताओं का कथन किया गया हो, उसका वक्तव्य परसमय (अजैनमत) है। और जिसमें परसमय का विचार करते हुए स्वसमय की स्थापना की गई हो, उसका वक्तव्य, तदुभय है। इस नियम के अनुसार आचार आदि ग्यारह अंग और सामायिक आदि चौदह अंग स्वसमय वक्तव्यरूप ही हैं, क्योंकि इनमें परसमय का विचार न करते हुए केवल स्वसमय की ही प्ररूपण की गयी है। तथा दृष्टिवाद अंग तदुभयरूप है, क्योंकि एक तो इसमें परसमय का विचार करते हुए स्वसमय की स्थापना की गयी है, दूसरे आयुर्वेद, गणित, कामशास्त्र आदि अन्य विषयों का भी कथन किया गया है।" (जयधवलासहित कसायपाहुड / पृ. १३६)। इसका अभिप्राय यह है कि दृष्टिवाद में जो मोक्ष में अनुपयोगी मन्त्रतन्त्रशास्त्र, निमित्तशास्त्र, ज्योतिःशास्त्र चिकित्साशास्त्र. (आयर्वेद). कामशास्त्र, नत्यशास्त्र, गीतशास्त्र, कलाशास्त्र, शिल्पशास्त्र, वास्तुशास्त्र, गणितशास्त्र आदि वर्णित हैं, वे परसमय हैं अर्थात् अजैनशास्त्र या मिथ्याशास्त्र हैं। स्वसमयवक्तव्यता को दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए श्वेताम्बर आचार्य श्री हरिभद्रसूरि लिखते हैं "तत्र यस्यां (वक्तव्यतायां)--- स्वसमयः स्वसिद्धान्तः आख्यायते यथा पञ्च आस्तिकायाः, तद्यथाधर्मास्तिकाय इत्यादि, तथा प्रज्ञाप्यते यथा गतिलक्षणो धर्मास्तिकाय इत्यादि, तथा प्ररूप्यते यथा स एवासंख्यातप्रदेशात्मकादिस्वरूपः, तथा दर्श्यते दृष्टान्तद्वारेण यथा मत्स्यानां गत्युपष्टम्भकं जलमित्यादि - -- तथैवैषोऽपि जीवपुद्गलानां गत्युपष्टम्भक इत्यादि--- सेयं स्वसमयवक्तव्यता।" (अनुयोगद्वार/हरिभद्रटीका । अभिधानराजेन्द्रकोश / भाग ६/प्र. ८३२ / जयधवलासहित कसायपाहुड / भा.१ / पृ. ८८ / पा.टि.)। अनवाद- जिस वक्तव्यता में स्वसमय अर्थात् स्वसिद्धान्त का कथन किया जाता है, जैसे पाँच अस्तिकाय हैं इत्यादि, इस प्रकार प्रज्ञापन किया जाता है, जैसे धर्मास्तिकाय का लक्षण गतिहेतुत्व है, इस प्रकार प्ररूपण किया जाता है, जैसे वह असंख्यातप्रदेशी आदि है, तथा दृष्टान्त द्वारा इस प्रकार समझाया जाता है कि जैसे जल मछलियों के चलने में सहायक होता है, वैसे ही धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलों की गति में सहायक है---ऐसी वक्तव्यता स्वसमयवक्तव्यता है। यद्यपि मंत्रतंत्र, ज्योतिष, अष्टांगनिमित्त, आयुर्वेद, वास्तुविद्या आदि शास्त्रों में उक्त प्रकार से न तो स्वसमय (जैनसिद्धान्त : षड्द्रव्य, सात तत्त्वादि) का वर्णन है, न परसमय (अजैन मत के सिद्धान्तों) का, इसलिए उक्त शास्त्रों को न तो स्वसमय कहा जा सकता है, न परसमय। तथापि सिद्धान्त) का कथन न होने की अपेक्षा उन्हें परसमय कहा गया है। उक्त शास्त्रों का किसी मतविशेष के अनुयायियों से सम्बन्ध नहीं है, वे सभी मतावलम्बियों में समान हैं। उनकी उत्पत्ति वि जनों के द्वारा हुई है और सभी लोगों के लौकिक जीवन में वे कथंचित् उपयोगी होते हैं। अतः जैनअजैन सभी सम्प्रदायों में उनका यथायोग्य उपयोग किया जाता है तथा वे गृहस्थों के लिए कथंचित् उपादेय, किन्तु मुमुक्षुओं के लिए सर्वथा हेय होते हैं, यही बतलाने के लिए दृष्टिवाद में उनका वर्णन है तथा इसी तथ्य को दृष्टि में रखते हुए भगवान् ऋषभदेव ने गृहस्थावस्था में अपने गृहस्थ पुत्रों को उनकी शिक्षा दी थी। दुःश्रुति, बाह्यशास्त्र, लौकिकशास्त्र उक्त तथ्य को दृष्टि में रखते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी ने जयोदय महाकाव्य में गृहस्थों के लिए उनका अध्ययन कथंचित् उपयोगी बतलाकर कहा है कि ये शास्त्र ऋषियों की भाषा में दुःश्रति कहे गये हैं- "आर्षवाच्यपि दुःश्रुतीरिमा:---।" (जयोदय महाकाव्य / पूर्वार्ध । सर्ग २/श्लोक ६३)। आचार्य ज्ञानसागर जी ने आगे कहा है 6 जून 2009 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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