Book Title: Jinabhashita 2007 12 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 8
________________ दिव्यध्वनि की दिव्यता सभी तीर्थंकरों ने अपनी दिव्यध्वनि से समय-समय | समाधान पर दृष्टिपात करते हैं। शंका- 'केवली की ध्वनि पर इस भव्यलोक को उपदेश देकर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त को साक्षर मान लेने पर उनके वचन प्रतिनियत एक भाषा किया है। दिव्यध्वनि के सम्बन्ध में कुछ विद्वान् मनीषी रूप ही होंगे अनेक भाषा रूप नहीं हो सकेंगे?' प्रायः एक मत नहीं देखे जाते हैं। उपलब्ध आगम के परिप्रेक्ष्य में उन्हीं में से कुछ धारणाओं की चर्चा यहाँ करना है । यह तो स्पष्ट है कि केवली भगवान् मनुष्य की तरह नहीं बोलते और न देवों की तरह। उनका उपदेश दिव्यध्वनि के माध्यम से होता है । वह ध्वनि दिव्य है, क्योंकि अन्य ध्वनियों से विलक्षण है । 'वह जिनेन्द्र भगवान् का वचन गंभीर है, मीठा है, अत्यन्त मनोहारी है, दोष रहित है, हितकारी है, कंठ, ओष्ठ आदि वचन के कारणों से रहित है, वायु के रोकने से प्रगट नहीं है, स्पष्ट है, परम उपकारी पदार्थों का कहनेवाला है, सब भाषामयी है, दूरस्थ व निकटस्थ को समान सुनाई देता है, समतारूप है, वह उपमा रहित है, वह वचन हमारी रक्षा करे।" समाधान- नहीं, क्योंकि क्रमविशिष्ट, वर्णात्मक, अनेक पंक्तियों के समुच्चय रूप और अलग-अलग प्रत्येक श्रोता में प्रवृत्त होनेवाली ऐसी केवली की ध्वनि सम्पूर्ण भाषारूप होती है, ऐसा मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है । इस समाधान से निष्कर्ष निकलता है कि केवली भगवान् की दिव्यध्वनि सम्पूर्ण भाषा रूप होती है, क्रम से प्रवृत्त होती है और वर्णात्मक अर्थात् अक्षरात्मक होती है । वह दिव्यध्वनि साक्षर होते हुए भी अनेक भाषा रूप है । उस दिव्यध्वनि में अनेक पंक्तियाँ निकलती हैं, जिन्हें सुनकर श्रोतागण अपने-अपने क्षयोपशम के अनुसार ग्रहण कर लेते हैं । श्रोतागण जिस प्रकार का क्षयोपशम लिये हुए होते हैं और जिस भाषा में उपदेश ग्रहण की क्षमता रखते हैं, उन्हें उसी भाषा में उपदेश ग्रहण हो जाता है । 'केवली के वचन इसी भाषा रूप हैं, ऐसा निर्देश नहीं किया जा सकता है, इसलिये उनके वचन ध्वनिरूप हैं, यह बात सिद्ध हो जाती है।" अनक्षरी भाषा को समझना प्रत्येक साधारण श्रोता के लिये संभव नहीं है। जो अक्षरज्ञान रखते हैं, वे उसी अक्षरात्मक भाषा को समझ सकते हैं, यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध है। यदि दिव्यध्वनि सर्वथा अनक्षरात्मक हो तो फिर अक्षरज्ञान रखनेवाले श्रोता को कुछ भी समझ में नहीं आयेगा, किन्तु ऐसा होता नहीं है। 'केवली के ज्ञान के विषयभूत पदार्थ अनन्त होने से और श्रोता के आवरण कर्म का क्षयोपशम अतिशयरहित होने से केवली के वचनों के निमित्त से संशय और अनध्यवसाय की उत्पत्ति हो सकती है। " श्रोता को जितना क्षयोपशम होता है, उतना तो वह समझ लेता है और अन्य अनन्त अर्थ को ग्रहण करने की क्षमता न होने से उस दिव्यध्वनि से श्रोता मन में संशय और अनध्यवसाय उत्पन्न हो जाते हैं। इस संशय और अनध्यवसाय को उत्पन्न कराने का कारण केवली के अनुभय-वचन योग है। साथ ही जो सत्यवचनयोग है, वह श्रोता को स्पष्ट अर्थ का बोध करा देता है। इस प्रकार उक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि वीरसेन विसंगति १ – कुछ मनीषियों का कहना है कि 'अर्हत तीर्थंकर की दिव्यध्वनि में अक्षर नहीं होते। इसका नाम ध्वनि है, भाषा नहीं है। भाषा में अक्षर होते हैं, ध्वनि में अक्षर नहीं होते। यदि भगवान् की वाणी साक्षर होती । तो इसे भाषा कहा जाता । अतः यह ध्वनि निरक्षर होती है । ' विचार करें कि क्या भाषा अक्षरात्मक ही होती है? क्या जिसमें अक्षर नहीं होते उसे भाषा नहीं कहते हैं ? नहीं, नहीं, यह बात उचित नहीं है क्योंकि शब्द दो प्रकार के होते हैं- 'एक भाषात्मक और दूसरे अभाषात्मक / भाषात्मक शब्द अक्षर और अनक्षर के भेद से दो प्रकार के हैं। अक्षरीकृत शब्दों से शास्त्र की अभिव्यक्ति होती है, अक्षरात्मक शब्द संस्कृत और अन्य के भेद से आर्य और म्लेच्छों के व्यवहार का कारण होता है। अनक्षरात्मक शब्द दो इन्द्रिय आदि जीवों के होते हैं। अतिशय केवलज्ञान के द्वारा वस्तु स्वरूप प्रतिपादन में कारणभूत भी अनक्षरात्मक भाषात्मक शब्द होते हैं । २ इन आर्ष वचनों से यह स्पष्ट हुआ कि भाषा अक्षरात्मक ही नहीं, अनक्षरात्मक भी होती है। जिसमें अक्षर नहीं हो, उसे भी भाषा कहते हैं । अतः केवली भगवान् के वचन भावात्मक होते हैं और अनक्षरात्मक भी । अब हम श्री वीरसेनस्वामी के द्वारा किये गये शंका 6 दिसम्बर 2007 जिनभाषित Jain Education International मुनि श्री प्रणम्यसागर जी ( संघस्थ- आचार्य श्री विद्यासागर जी) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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