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स्थान थे।
सागर जिले में बीनाबरहा स्थान पर जैन कला के अवशेष मिलते हैं जिनमें दो मंदिर और एक गन्धकुटी मुख्य हैं। इनमें से एक मंदिर तीर्थंकर चन्द्रप्रभु को समर्पित है और दूसरा शान्तिनाथ को। ये मंदिर यद्यपि बहुत बाद के हैं, फिर भी जैन मंदिरों के निर्माण की परम्परा परवर्ती काल में दर्शाते हैं।
की और उभरा है । बहारी दीवार पर तीन स्तरों पर बनी हुई सुन्दर मूर्तियाँ अपनी कला और अभिव्यक्ति के लिए बेजोड़ हैं। इन मूर्तियों में वैष्णव विषयों की प्रधानता है, जैसे परशुराम, बलराम-रेवती, राम-सीता, हनुमान, कृष्ण का यमलार्जुन आख्यान, लक्ष्मी-नारायण आदि । शिव, अग्नि, रति कामदेव और विविध सुरसुन्दरी प्रतिमाएँ अपने भव्य रूप में उत्कीर्ण हैं।
छतरपुर जिले में स्थित खजुराहों अपनी स्थापत्य कला और शिल्पकला के लिए विश्व विख्यात है जहाँ चंदेल राजाओं के समय एक बहुत बड़े मंदिर समूह का निर्माण हुआ। इतना बड़ा कला क्षेत्र जैनधर्म से कैसे अछूता रह सकता था । फल स्वरूप यहाँ अनेक जैन मंदिरों का निर्माण हुआ जिनमें से पार्श्वनाथ और आदिनाथ मंदिर तथा शान्तिनाथ ओर घण्टाई मंदिरों के अवशेष अब भी देखे जा सकते है। घण्टाई मंदिर का मुखमण्डप और महामण्डप ही अवशेष है जिनका समतल वितान चार ऊँचे स्तम्भों पर टिका हुआ है। इस मंदिर के अलंकृत स्तम्भ अपने निर्माण कौशल और सूक्ष्म शिल्पांकरण के लिए विशेष रूप से दर्शनीय है। जिनके ऊपरी भाग पर कीर्तिमुखों से लटकते हुए घंटे मनमोहक है। संभवतः इन्हीं घण्टों की सुन्दर शिल्पकारी के कारण इसको घण्टाई नाम दिया गया होगा । मंदिरों में सुन्दर घण्टों की सजावट और उसका अलंकृत वितान उसके शिल्पांकरण में विशेष उल्लेखनीय माने गये है। मंदिरों के संदर्भ में इसलिए उनकी चर्चा शिल्प साहित्य में विशेषतया की गई है। मत्स्यपुराण में मंदिर निर्माण के महत्व को दर्शाते हुए कहा गया हैघण्टावितानसतोरणचित्रणांकं, नित्योत्सवप्रमुदितेन जनेन सार्धम् । यः कारयेत् सुरंगृहं विविधध्वजांकं, श्रीस्तं न मुच्यति सदा दिवि पूज्यते च ॥ इसके महामण्डप द्वार के ऊपर अष्टभुजी यक्षी चक्रेश्वरी गरुड़ पर आसीन है। द्वार के उत्तरंग पर 16 पवित्र प्रतीक बने हैं। जिन्हें तीर्थंकर महावीर की माता ने उनके जन्म से पूर्व (स्वप्न में) देखें ।
क्षिप्र - वितान और उसके लटकते हुए आश्र्चय जनक लम्बनों को देखता हुआ दर्शक मंदिर के महामण्डप अन्तराल और प्रदक्षिणपथ में प्रवेश करता है । महामण्डप के द्वार पर गरुड़ासीन यक्षी चक्रेश्वरी की मूर्ति तथा गर्भग्रह के द्वार पर जिन मूर्तियों निर्मित हुई है । ब्राह्मण धर्म की मूर्तियों का अंकन इस काल की धार्मिक सहिष्णुता, रचनात्मकता और सहकार भावना का द्योतक है। इसके समीप आदिनाथ मंदिर 11 वीं शताब्दी का है जिसका गर्भगृह और अन्तराल ही अपने प्राचीन रूप में हैं। इसके गर्भगृह की भद्ररयिकाओं में यक्षी प्रतिमाएँ बनी हैं जिनके ऊपर ऊँचा शिखर खजुराहों की मंदिर निर्माण कला का परवर्ती रूप दर्शाता है। शान्तिनाथ मंदिर आज भी पूजा में है जिसके अन्दर आदिनाथ की एक विशाल प्रतिमा स्थापित है और साथ ही बाद में बनी अनेक देव कुलिकाओं में जैन मूर्तियाँ और स्थापत्य खण्ड देखने को मिलते हैं। इसकी कुछ मूर्तियाँ जैसे तीर्थंकर के मात-पिता की मूर्तियाँ, अपने सुन्दर कलात्मक निर्माण के लिए आकर्षक है।
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स्थानीय खजुराहो संग्रहालय में बहुत सी जैन प्रतिमाएँ सुरक्षित हैं। जिनमें शासन देवी मनोवेगा, एक मातृका, जैन दम्पति और तीर्थंकर आदिनाथ प्रतिमाएँ उल्लेखनीय हैं। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की प्रतिमा सिंहासन पर कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रदर्शित है, जिसके दोनों ओर शासनदेवता और उपासक निर्मित किये गये हैं, प्रभावली पर जिन प्रतिमाएँ, पवित्रगजमूर्तियाँ, मालाधारी विद्याधर आदि ऊपर की ओर उत्कीर्ण हैं।
पार्श्वनाथ मंदिर 10वीं शताब्दी के उत्तरार्ध की कृति है और खजुराहो के जैन मंदिर कला की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण है । अपनी योजना और निर्माण विधि में यह खजुराहों के अन्य मंदिरों से भिन्न है। इसमें न तो कक्षासन वातायन है और न इसका भित्तिभाग स्थान-स्थान पर बाहर |
22 दिसम्बर 2007 जिनभाषित
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उपरोक्त मंदिरों में जैन तीर्थंकर, यक्ष-यक्षिणी, दिग्पाल, सुरसुन्दरी, उपासक और जनसाधारण, पशु पक्षी, गजशार्दूल, नर्तक-गायक, घरेलू दृश्य आदि सभी कुछ अपने अनेक रूपों और प्रकारों में देखने को मिलते हैं। लगता है पूरा दैवी और भौतिक जगत मूर्तरूप में साकार हो गया है, और सभी मिलकर ऐसे दिव्य वातावरण का निर्माण करते हैं जिससे परे संसार में कुछ भी नहीं रह जाता। निःशेष का
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