________________ रजि नं. UPHIN/2006/16750 बारह भावना रचयिता- मुनि श्री सुव्रतसागर जी संघस्थ - आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज छन्द जोगीरासा (दोहा) देवशास्त्र गुरु को नमूं, सम्यक् संयम काज।। ध्यायो बारह भावना, पाने शिव-सुख राज॥ अनित्य भावना सुख वैभव नर देव संपदा, मात-पिता जन सारे।। ज्ञान रूप यौवन वय तन बल, तेज कान्ति सब न्यारे॥ इन्द्रधनुष जल बुदबुद जैसी, क्षण भंगुर जग धारा। यों अनित्य भावना चिन्तो, नित्य आत्म व्यवहारा॥ अशरण भावना चक्री सुर अहमिन्द्र आदि को यम चेली आ घेरे। मंत्र तन्त्र विद्या बल औषध, कोई शरण न तेरे॥ किला शस्त्र सेनाएँ सारी, मरते नहीं बचावें। यही भावना अशरण चिन्तो, शरण आत्म निज ध्यावें॥ एकत्व भावना जीव अकेला कर्म करे सब, सुख-दुख सहे अकेला। एक अकेला भव-भव भटके, जन्मे मरे अकेला // निज-जन, पर-जन साथ न देते, साथ न दे गुरु चेला। यों एकत्व भावना चिन्तो, रहता जीव अकेला॥ अन्यत्व भावना मात-पिता सुत दारा बांधव, मित्र सभी जन प्यारे। तन चेतन से अन्य रहा तो, कहें किसे अपना रे॥ मोहभाव से पर द्रव्यों को, निज कहता अज्ञानी। यों अन्यत्व भावना चिन्तो, अपना जिय दृगज्ञानी॥ संसार भावना जिनमत में श्रद्धा बिन सब ही, भव वन में भटके हैं। द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव भव, परिवर्तन सहते हैं। सभी योनि में सब गतियों में, जनम मरण दुख पाते। यों संसार भावना चिन्तो, बस शिव में सुख पाते॥ अशुचि भावना चारों गतियाँ अशुचि यहाँ नित, इन्द्रिय सुख, दुखकारी। खून पीप मल आदिक अन्दर, बाह्य देह पर प्यारी॥ जगत काय ये बाहर सुन्दर, किन्तु अशुचि भीतर हैं। अशुचि भावना ऐसी चिन्तो, शुचि निज आतमधर हैं॥ आस्रव भावना नाव छिद्रमय जैसे डूबे, पानी भर जाने से त्यों भव सागर में हम डूबें, कर्मों के आने से मिथ्या अविरति कषाय योग हि, सब आस्रव के द्वारे यही भावना आस्रव चिन्तो, बुद्ध निरास्रव सारे। संवर भावना छिद्र डाट से नीर न आवे, नाव किनारा पार्वे त्यों संवर कर्मास्रव रोके, भव से पार लगा / / दर्शन व्रत शम दम धर्मों से, कर्मास्रव को रो.. यही भावना संवर चिन्तो, शुद्ध आत्म नित सोचें। निर्जरा भावना पके आम झड़ते डाली से, त्यों सविपाक सभी के पाल पकावे माली जैसे, हो अविपाक सुधी के जिनकारण से संवर होता, देश निर्जरा उससे यही भावना निर्जर चिन्तो, सकल मोक्ष हो जिनः लोक भावना सहज लोक अलोक अनादि हैं, सदा सिद्ध वह जी / ताल वृक्ष, नर हाथ कटी सम, छहों द्रव्य मय ज सहे कर्म निजजीवलोक में, भव-भव में नित भ | लोक भावना ऐसी चिन्तो, सुख पाओ शिव रम बोधिदुर्लभ भावना निगोद-थावर-त्रसगति-नर-तन, जन्म देश कुल दुर्लभ स्वस्थ देह जिनश्रद्धा दुर्लभ, श्रावक संयम दुर्लभ बोधि समाधि धर भव घूमें, केवल ज्ञान बिना ही बोधि भावना दुर्लभ यों लख, तू बन नहीं प्रम दो धर्म भावना वीतराग सर्वज्ञ हितंकर तीर्थंकरों के द्वारा। कथित 'अहिंसा परमोधर्मः' दस विधमय सुखकारा॥ मुझे मिले सद्धर्म इसी से, अक्षय मोक्ष मिलेगा। धर्म भावना ऐसी चिन्तो, नित दुर्धर्म छलेगा। दोहा ये जननी वैराग्य की, 'सुव्रत' रखे सँभाल'। चिंतो बारह भावना, होओ मालामाल / स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, Jain Education Inteोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनीआमस-282002 (ला,प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन / www.jainelibrary.org