Book Title: Jinabhashita 2007 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 26
________________ | जिज्ञासा- क्या वातवलयों में जो वायु है, उसमें वायुकायिक जीव होते हैं या नहीं? या वह वायुकाय है समाधान- इस जिज्ञासा के समाधान में श्री मूलाचार गाथा 212 में इस प्रकार कहा है जिज्ञासा समाधान वादुब्भामो उक्कलि मंडलि गुंजा महा घण तणू य । ते जाण वाउजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा ॥ 212 ॥ अर्थ - घूमती हुई वायु उत्कलिरूप वायु मंडलाकार वायु, गुंजा वायु, महावायु, धनोदधिवलय की वायु, और तनुवातवलय की वायु को वायुकायिक जीव जानो। जानकर उनका परिहार करो। आचारवृत्ति- (आचार्य वसुनंदि) बात शब्द से सामान्य वायु को कहा है। जो वायु घूमती हुई ऊपर को उठती है, वह उद्भ्रमवायु है । जो लहरों के समान होती है वह उत्कलिरूप वायु है। पृथ्वी लगकर घूमती हुई वायु मंडलवायु है। गूँजती हुई वायु गुंजावायु है । वृक्षादि को गिरा देनेवाली वायु महावायु है । घनोदधि - वातवलय, तनुवातवलय की वायु घनाकार है और पंखे आदि से की गई वायु अथवा लोक को वेष्टित करनेवाली वायु तनुवात है । उदर में स्थित पाँच प्रकार की वायु होती है। अर्थात् हृदय में स्थित वायु प्राणवायु है । गुदा में स्थित अपानवायु है। नाभिमंडल में समान वायु है । कंठप्रदेश में उदानवायु है। ओर संपूर्ण शरीर में रहनेवाली वायु व्यानवायु है । ये शरीर संबंधी पांच वायु हैं। इसी प्रकार से ज्योतिष्क आदि स्वर्गों के विमान के लिये आधारभूत वायु, भवनवासियों के स्थान के लिये आधारभूत वायु इत्यादि वायु के भेद, इन्हीं उपर्युक्त भेदों के अंतर्गत आते हैं। इन्हें वायुकायिक जीव जानो और जानकर उनका परिहार करो, ऐसा तात्पर्य है । प्रश्नकर्ता - कर्मकाण्ड में प्रकृतिबन्ध के 4 भेद कहे हैं- सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव इनको समझाने की कृपा करें? समाधान- कर्मकाण्ड गाथा 122 से 124 तक इन चार प्रकृतिबंध के भेदों का वर्णन किया गया है। उसी के आधार से यहाँ लिखा जाता है। 1. सादि बन्ध- जिस कर्म के बन्ध का अभाव होकर वही कर्म जब पुनः बन्धने लगता है, तब उसे सादि बन्ध कहते हैं । जैसे ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियों का बंध 24 दिसम्बर 2007 जिनभाषित Jain Education International पं. रतनलाल बैनाड़ा सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान पर्यन्त के जीव को निरन्तर हो रहा था। वह जीव जब ग्यारहवें उपशान्तकषाय-गुणस्थान को प्राप्त हुआ, तब उसके ज्ञानावरण कर्म का बन्ध रुक गया। वह ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीव जब उतरते हुए 10वें गुणस्थान में आया, तब ज्ञानावरणकर्म का बन्ध होना प्रारंभ हो गया। तो यह जो ज्ञानावरणकर्म का बन्ध होना प्रारम्भ हुआ यह सादि बन्ध कहलाता है । 2. अनादि बन्ध- जिस जीव के अनादिकाल से जिसकर्म का बन्ध निरन्तर हो ही रहा है वह अनादि बन्ध है । जैसे प्रत्येक जीव के ज्ञानावरण कर्म का बन्ध अनादि से हो रहा है, शर्त यह है कि उसने श्रेणी आरोहण कभी न किया हो अर्थात् उसने ग्यारहवाँ गुणस्थान कभी प्राप्त न किया हो, ऐसे जीव के उपर्युक्त उदाहरण के अनुसार ज्ञानावरण कर्म का बन्ध अनादि से निरन्तर हो ही रहा है। तो उसका यह बन्ध अनादि बन्ध कहलाता है । 3. ध्रुव बन्ध- जो बन्ध अनादिकाल से हो रहा है और अनन्तकाल तक होता ही रहेगा वह ध्रुव बन्ध कहलाता है। यह अभव्य तथा अभव्यसम जीवों के पाया जाता है। तथा जब तक बंध की व्युच्छित्ति नहीं होती, तब तक होता रहता है I 4. अध्रुव बन्ध- जो बन्ध अभी तो हो रहा है, परन्तु जिसका अन्त आ जाये, वह अध्रुव बन्ध है। यह भव्य जीवों के होता है। जैसे उपर्युक्त उदाहरण में पहले ज्ञानावरण SIT बन्ध होता था, परन्तु 11वें गुणस्थान में पहुँचते ही बन्ध होना रुक गया । अतः यह बन्ध अध्रुव बन्ध हुआ । आठों कर्मों की प्रकृतियों में इस बन्ध संबंधी जो विशेषता है उसको कहा जाता है 1. ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियाँ, दर्शनावरण की नौ, अन्तराय की पाँच, मिथ्यात्व, 16 कषाय, भय-जुगुप्सा, , तैजस शरीर, अगुरुलघु उपघात, निर्माण, वर्णादि चार, कार्मणशरीर में 47 ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ हैं । बन्धव्युच्छिति होने से पूर्व प्रत्येक जीव को इनका बन्ध प्रति समय होता ही रहता है। इनमें उपर्युक्त चारों प्रकार का बंध पाया जाता है। 2. उपर्युक्त 47 के अलावा जो 73 प्रकृतियाँ बंधयोग्य बचती हैं (148 प्रकृतियों में से वर्णादि 16 + बंधन 5 + संघात 5 + सम्यक्मिथ्यात्व + सम्यकप्रकृति = 28 घटाने पर बन्ध योग्य प्रकृतियाँ 120 शेष रहती हैं।) उनमें सादि और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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