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सर्वत्र विहार करनेवाले महावीर भगवान् की दिव्यध्वनि का | फिर देवकृत अतिशय में पुनः रखने का क्या प्रयोजन है? यह अतिशय सार्वार्धमागधी के रूप में नहीं कहा जा सकेगा।
समाधान- आचार्य पूज्यपाददेव-रचित नन्दीश्वरक्या मगधदेश में ही भगवान् का विहार होता है, जो यह
__ भक्ति में इस अर्धमागधी भाषा का नाम सार्वार्धमागधी कहा गया कि समवशरण में आधी संख्या में मगधदेश के भाषा लिया है। जिसका अर्थ आचार्य प्रभाचन्द्र जी ने टीका श्रोता थे। यह बात तो भगवान् महावीर स्वामी के लिये | में इस प्रकार किया है- 'सर्वेभ्यो हिता सार्वा। सा चासौ भी पूर्णरूप से घटित नहीं होती, तब फिर अन्य तीर्थंकरों | अर्धमागधीया च।'१५ अर्थात् जो सब का हित करनेवाली के विषय में तो यह बात कदापि घटित नहीं हो सकती है, इसलिये सार्व है। वह ही सर्व हितकारी वाणी है। उस समय बिहार को मगध कहा जाता था. वहाँ के अर्धमागधी है। अर्थात् आधी मागधी भाषा सर्व हितकारी श्रोता समवशरण में अधिक थे, ये सब मनगढन्त युक्तियाँ | है। भगवान् की दिव्यध्वनि का आधा भाग जो कि मागधी हैं, इन युक्तियों का आगम में कहीं कोई उल्लेख नहीं है। भाषात्मक है सब जीवों के हित के लिये प्रवृत्त होता है कुछ परवर्ती भट्टारक टीकाकारों ने इस सार्वार्धमागधी भाषा | इसलिये इसे सार्वार्धमागधी भाषा कहा है। यह इस टीका का व्युत्पत्ति-अर्थ आधी मागधी भाषा व आधी सर्वभाषा | से व्युत्पत्ति-अर्थ निकलता है। तथा इस आधी भाषा को रूप निकाला है। वे लिखते हैं- 'अर्धं भगवद्भाषाया
मागधी भाषा कहने का प्रयोजन यह है कि मगध देवों के मगधदेशभाषात्मकं अर्धं च सर्वभाषात्मकम्।' १३ अर्थात् सन्निधान से इस दिव्यध्वनि का आधा भाग सब जीवों के तीर्थंकर की दिव्यध्वनि आधी मगधदेश की भाषारूप और
हित में प्रवृत्त होता है और आधा भाग बीजपदयुक्त होने आधी सर्वभाषारूप होती है। मगधदेश से दिव्यध्वनि को | से गणधर देवों के लिये ही समझना शक्य होता है। कहा जोड़कर इस प्रकार की व्याख्या करना केवल भगवान् | भी है- 'अठारह भाषा व सात सौ कुभाषा स्वरूप द्वादशांमहावीर के लिये कथंचित् भले ही कही जाय, पर सभी | गात्मक उन अनेक बीज पदों के प्ररूपक अर्थकर्ता तीर्थंकरों के अतिशयों में यह व्याख्या लागू नहीं हो सकती |
तीर्थंकरदेव हैं तथा बीज पदों में लीन अर्थ के प्ररूपक है। यदि कोई इस प्रकार माने. तो फिर यह भी मानना | बारह अंगों के कर्ता गणधर भट्टारक ग्रन्थकर्ता हैं. ऐसा पड़ेगा कि सभी तीर्थंकरों ने मगधदेश में ही अपना उपदेश
स्वीकार किया गया है।'१६ तथा वह दिव्यध्वनि एक होकर दिया, वहीं पर उनका समवसरण लगा, वहीं के श्रोताओं | भी भगवान् के महात्म्य से समस्त मनुष्यों की भाषाओं और ने उस सभा में सर्वाधिक भाग लिया। किन्तु ऐसा कदापि | अनेक कुभाषाओं रूप परिणमन करके लोगों के अज्ञान नहीं है। सभी तीर्थंकरों का विहार इस आर्यखण्ड में सर्वत्र | अन्धकार को दूर करके उन्हें तत्त्वों का बोध कराती है। होता है, हुआ है इस बात की प्रमाणिकता आगम ग्रन्थों | यदि दिव्यध्वनि मात्र बीजपदवाली हो, तो फिर वह गणधर से उपलब्ध होती है। और यह अर्धमागधी-भाषारूप | परमेष्ठी को ही समझ में आ सकती है, क्योंकि उन बीजपदों अतिशय मात्र भगवान् महावीर की मुख्यता से नहीं है, |
र की मख्यता से नहीं है | को समझने के लिये बुद्धिऋद्धि आवश्यक है। किन्तु ऐसा क्योंकि अन्य तीर्थंकरों का भी देवोपनीत यही अतिशय है।। नहीं होता है। वह समवसरण में बैठे हुए अन्य अनेक पशु, भगवान् श्री अजितनाथ की दिव्यध्वनि अर्धमागधी भाषा | देव और मनुष्यों को भी समझ में आती है। अतः स्पष्ट में थी, ऐसा उल्लेख श्री रविषेण आचार्य ने किया है, देखें- | होता है कि उसी एक दिव्यध्वनि में कुछ भाग ऐसा होता
'भाषा अर्धमागधी तस्य भाषमाणस्य नाधरौ। है, जो सर्वजन साधारण को समझ में आता है और कुछ चकार स्पन्दसंयुक्तावहो चित्रमिदं परम्॥१४ । भाग ऐसा होता है जिसे मात्र ऋद्धिधारी विशिष्ट गणधर
अर्थात् भगवान्-अजितनाथ की भाषा अर्धमागधी | जन ही समझ सकते हैं। जो भाग समस्त लोगों को समझ भाषा थी, और बोलते समय उनके ओठों को चंचल नहीं | में आता है, वह मगधदेवों के सन्निधान से सभी जीवों कर रही थी, यह बड़े आश्चर्य की बात थी। अतः अब के पास एक साथ पहुँचता है। जिस प्रकार आजकल वक्ता हमें इस देवोपनीत अतिशय को जो सभी तीर्थंकरों के लिये | की वाणी को ध्वनिवाहक यन्त्र के द्वारा दूरवर्ती श्रोताओं है, किसी देश की भाषा से नहीं जोडना चाहिये। फिर प्रश्न
॥ जाता है, उसी प्रकार मगधदेव उस वाणी उठता है, कि इस देवोपनीत अतिशय का अर्थ क्या है? | को सभी में सर्वत्र प्रसारित कर देते हैं, इसीलिये देवकृत और जब अष्ट प्रतिहार्यों में दिव्यध्वनि को गिना है, तो | अतिशय यह अर्धमागधी भाषा कही जाती है। सामान्यतः
8 दिसम्बर 2007 जिनभाषित -
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