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सन्दर्भ
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इन तीनों मुख्य विसंगतियों का आगम के परिप्रेक्ष्य | १०. श्री आदिपुराण २३/७३ में यहाँ समाधान किया गया है। हमें किसी भी बात को | ११. तत्त्वार्थवृत्ति सूत्र ५/२ मात्र युक्तियों से नहीं मानना चाहिये। आगम पहले होता | १२. डॉ. लाल बहादुर शास्त्री का लेख- 'दिव्यध्वनि' है, युक्ति बाद में। हाँ, आगम को पुष्ट करने के लिये यदि | १३. श्री दर्शनप्राभृत टीका ३५/२८/१२ युक्ति का सहारा लिया जाता है, तो वह अति उत्तम है। १४. श्री पद्मपुराण ५/९९० ऐसा हमारे श्रीगुरु का उपदेश है।
१५. क्रियाकलाप १६. श्रीधवल पु. ९
१७. नन्दीश्वरभक्ति श्री पूज्यपाददेव/श्लोक ५८ १. श्री पञ्चास्तिकाय गाथा २ की ता. वृत्ति टीका में | १८. श्री दर्शनप्राभृतटीका ३५/२८/१३ उद्धृत गाथा का अर्थ।
१९. भक्तामरस्तोत्र ३५ २. श्री राजवार्तिक सूत्र ५/२४
२०. श्री हरिवंशपुराण ५८/१५ ३. श्री धवल पुस्तक १ पृ. २८६
२१. श्री आदिपुराण ३३/१२० ४. श्री धवल पुस्तक १ पृ. २८६
२२. श्री स्वयंभूस्तोत्र काव्य ९७ ५. वही
२३. श्री समाधितन्त्र/कारिका २ ६. श्री धवल पु. ९, पृ. ५९
२४. श्री पञ्चास्तिकाय/गाथा २ ७. दिव्यध्वनि एक लेख/ लेखक- डॉ. लाल बहादुर जैन | २५. श्री पञ्चास्तिकाय/गाथा २/ता. वृत्ति टीका शास्त्री दिल्ली।
२६. श्री आदिपुराण/८४ ८. श्री हरिवंश पुराण २/११३
२७. श्री नियमसार/ता.वृ./१७४ ९. श्री पञ्चास्तिकाय गाथा २ ता. वृत्ति टीका | २८. श्री धवल/पु. ५
बहुमान भोजपुर में अष्टमी के दिन आचार्यश्री ने केशलुंच । जंगलों में बैठकर आचार्यों ने लिखा होगा, उन्हीं कारिकाओं किया। तदुपरांत जंगल की ओर चले गये। थोड़ी देर | को आचार्य महाराज के श्रीमुख से इन्हीं शिलाओं पर बाद मैं भी जंगल गया। वहाँ देखा पूज्य गुरुदेव एक | बैठकर सुन रहा हूँ। आचार्य महाराज जी कहते हैं- हाँ बड़ी शिला पर विराजमान हैं, दोनों हाथ जोड़े हुए आँख | जो कारिकायें अच्छी लगती हैं, उनका मैं बार-बार पाठ बंद किये हुये कुछ पाठ पढ़ रहे है। मैं उनके समीप | करता हूँ, उन कारिकाओं की माला भी फेर लेता हूँ, में ही पहुँच गया। मुझे ऐसा लगा रहा था जैसे मैंने उनके | कम से कम अपन इन कारिकाओं का ही पाठ कर दर्शन करके सब कुछ पा लिया हो, हृदय गद्गद् हो | लें। यह सुनकर ऐसा लगा मानों आचार्य महाराज का उठा। उसी शिला पर नीचे की ओर मैं भी हाथ जोड़कर | जिनवाणी के प्रति, पूर्वाचार्यों के प्रति कितना बहुमान बैठ गया। आचार्य महाराज लगातार अनेक बार एक ही है। शायद यही कारण है उनके प्रत्येक शब्द में सागर कारिका का पाठ कर रहे थे। वह कारिका थी- | जैसी गहराई दिखाई देती है। उनके प्रत्येक वाक्य मंत्र सर्वं निराकृत्य विकल्पजालं,
का काम करते हैं। जीवन में नई प्रेरणा एवं उमंग भर संसारकान्तारनिपातहेतुम्।
देते हैं। विविक्तमात्मानमवेक्षमाणो,
आगे उन्होंने बताया कि यह संसार विकल्पों का निलीयसे त्वं परमात्मतत्त्वे ॥२९ ।।
जाल है और विकल्प संसार के कारण हैं, इन्हें छोड़कर यह सामायिक पाठ की कारिका है। थोड़ी देर | आत्मस्थ होना चाहिए, निर्विकल्प होना चाहिए, तभी बाद गुरुदेव ने आँखे खोलीं, बोले- क्यों तुम आ गये? | संसार से मुक्ति मिल सकती है। मैंने हाथ जोड़कर कहा-जी आचार्य श्री मैं आ गया। मुनि श्री कुंथुसागर-कृत संस्मरण' से साभार
हमारा सौभाग्य है कि जिन कारिकाओं को गुफाओं में, 10 दिसम्बर 2007 जिनभाषित
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