Book Title: Jinabhashita 2007 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 13
________________ महावीर का अहिंसाव्रत आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी अहिंसा बड़ी कठिन साधना है। उसका साधन संयम है, मैत्री है, अद्रोह-बुद्धि है और सबसे बढ़कर सत्य की परम उपलब्धि है। भगवान् महावीर से बड़ा अहिंसाव्रती कोई नहीं | संकल्प के आत्मजयी-महात्मा बहुत थोड़े हुए हैं। उनके हुआ। उन्होंने विचारों के क्षेत्र में क्रांतिकारी अहिंसक वृत्ति | मन, वचन और कर्म एक दूसरे के साथ पूर्ण सामंजस्य का प्रवेश कराया। विभिन्न विचारों और विश्वासों के | में थे। इस देश का नेता उन्हीं जैसा तपोमय महात्मा ही प्रत्याख्यान में जो अहंकारभावना है, उसे भी उन्होंने पनपने | हो सकता है। हमारे सौभाग्य से इस देश में तपस्वियों की नहीं दिया। अहंकार अर्थात् अपने आपको प्रवाह से पृथक् | सदा बहुलता रही है। केवल चरित्र-बल ही पर्याप्त नहीं समझने की वृत्ति। सत्य को 'इदमित्थं' रूप में जानने का | है। इसके साथ और कुछ भी आवश्यक है। कार का ही एक रूप है। सत्य अविभाज्य। यह और कुछ भी हमारे मनीषियों ने खोज निकाला होता है और उसे विभक्त करके देखने से मत-मतांतरों का | था। वह था अहिंसा, अद्रोह और मैत्री। अहिंसा परमधर्म आग्रह उत्पन्न होता है। आग्रह से सत्य के विभिन्न पहलु | है, सनातन धर्म है, वह एकमात्र धर्म है, आदि बातें इस ओझल हो जाते हैं। देश में सदा मान्य रही हैं। मन से, वचन से, कर्म से अहिंसा पहली बात तो यह है कि केवल वाणी द्वारा उपदेश | का पालन कठिन साधना है। सिद्धांतरूप में प्रायः सभी या कथनी कभी उचित लक्ष्य तक नहीं ले जाती। उसके | ने इसे स्वीकार किया है, पर आचरण में इसे सही-सही लिए आवश्यक है कि वाणी द्वारा कुछ भी कहने के पहले | उतार लेना कठिन कार्य है। शरीर द्वारा अहिंसा का पालन वक्ता का चरित्र शुद्ध हो। उसका मन निर्मल होना चाहिए, | अपेक्षाकृत आसान है, वाणी द्वारा कठिन है और मन द्वारा आचरण पवित्र होना चाहिए। जिसने मन, वचन और कर्म | तो नितान्त कठिन है। तीनों में सामंजस्य बनाए रखना और को संयत रखना नहीं सीखा, इनमें परस्पर अविरुद्ध रहने | भी कठिन साधना है। की साधना नहीं की, वह जो कुछ भी कहेगा, अप्रभावी | इस देश में 'अहिंसा' शब्द को बहुत अधिक महत्त्व होगा। दिया जाता है। यह ऊपर-ऊपर से निषेधात्मक शब्द लगता __हमारे पूर्वजों ने मन, वचन, कर्म पर संयम रखने | है, लेकिन यह निषेधात्मक इसलिए है कि आदिम सहजातको एक शब्द में 'तप' कहा है। तप से ही मनुष्य संयतेन्द्रिय | वृत्ति को उखाड़ देने से बना है। अहिंसा बड़ी कठिन साधना या जितेन्द्रिय होता है, तप से ही वह 'तपस्वी' होता है, | है। उसका साधन संयम है, मैत्री है, अद्रोहबुद्धि है और तप से ही वह कुछ कहने की योग्यता प्राप्त करता है। सबसे बढ़कर सत्य की परम उपलब्धि है। अहिंसा कठोर विभिन्न प्रकारों के संस्कारों और विश्वासों के लोग तर्क | संयम चाहती है। इंद्रियों और मन का निग्रह चाहती है, से या वाग्मिता से नहीं, बल्कि शुद्ध, पवित्र, संयत चरित्र | वाणी पर संयत अनुशासन चाहती है और परम सत्य पर से प्रभावित होते हैं। युगों से यह बात हमारे देश में बद्धमूल | सदा जमे रहने की अविसंवादिनी बुद्धि चाहती है। हो गई है। इस देश के नेतृत्व का अधिकारी एक मात्र | मुझे भगवान् महावीर के इस अनाग्रही रूप में, जो वही हो सकता है, जिसमें चारित्र का महान् गुण हो, | सर्वत्र सत्य की झलक देखने का प्रयास है, परवर्तीकाल दुर्भाग्यवश वर्तमानकाल में इस ओर कम ध्यान दिया जा | के अधिकारी भेद, प्रसंग-भेद आदि के द्वारा सत्य को सर्वत्र रहा है। जिसमें चरित्रबल नहीं, वह देश का नेतृत्व नहीं | देखने की वैष्णवप्रवृत्ति का पूर्वरूप दिखाई देता है। परवर्ती कर सकता। | जैन आचार्यों ने स्याद्वाद के रूप में इसे सुचिंतित दर्शनशास्त्र भगवान् महावीर जैसा चरित्र-सम्पन्न, जितेन्द्रिय, | का रूप दिया और वैष्णव आचार्यों ने सबको अधिकारी आत्मवशी, महात्मा मिलना मुश्किल है। सारा जीवन उन्होंने | भेद से स्वीकार करने की दृष्टि दी है। भगवान् महावीर आत्म-संयम और तपस्या में बिताया। उनके समान दृढ- | ने सम्पूर्ण भारतीय मनीषा को नए ढंग से सोचने की दृष्टि -दिसम्बर 2007 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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