Book Title: Jinabhashita 2007 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 6
________________ सम्यग्दर्शन श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी सम्यग्दर्शन का अर्थ आत्मलब्धि है। आत्मा के। खली थी। जब वह निर्दोष सीता को जंगल में छोड़ अपने स्वरूप का ठीक-ठीक बोध हो जाना आत्मलब्धि कहलाती अपराध की क्षमा माँग वापिस आने लगता है तब सीता है। आत्मलब्धि के सामने सब सुख धूल हैं। सम्यग्दर्शन जी उससे कहती है- 'सेनापति! मेरा एक सन्देश उनसे आत्मा का महान् गुण है। इसी से आचार्यों ने सबसे पहले | कह देना। वह यह कि जिस प्रकार लोकापवाद के भय उपदेश दिया-'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग'= सम्यग्दर्शन, | से आपने मुझे त्यागा, इस प्रकार लोकापवाद के भय से सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र का समूह मोक्ष का मार्ग है। धर्म को न छोड देना।' आचार्य की करुणा बुद्धि तो देखो, मोक्ष तब हो जब कि उस निराश्रित अपमानित दशा में भी उन्हें इतना पहले बन्ध हो। यहाँ पहले बन्ध का मार्ग बतलाना था फिर | विवेक बना रहा। इसका कारण क्या? उनका सम्यग्दर्शन। मोक्ष का, परन्तु उन्होंने मोक्ष-मार्ग का पहले वर्णन इसीलिए | आज कल की स्त्री होती तो पचास गालियाँ सुनाती और किया है कि ये प्राणी अनादिकाल से बन्धजनित दुःख का | अपनी समानता के अधिकार बतलाती। इतना ही नहीं सीता अनुभव करते-करते घबरा गये हैं, अतः पहले उन्हें मोक्ष | जी जब नारद जी के आयोजन द्वारा कुशलता के साथ का मार्ग बतलाना चाहिये। जैसे कोई कारागार में पड़कर | अयोध्या वापिस आती हैं, एक वीरतापूर्ण युद्ध के बाद दुखी होता है, वह यह नहीं जानना चाहता कि मैं कारागार | पिता-पुत्र का मिलाप होता है, सीताजी लज्जा से भरी हुई में क्यों पड़ा? वह तो यह जानना चाहता है कि मैं इस राजदरबार में पहुँचती हैं, उन्हें देखकर रामचन्द्र जी कह कारागार से कैसे छूटू ? यही सोचकर आचार्य ने पहले उठते हैं-'तुम बिना शपथ दिये, बिना परीक्षा दिये यहाँ मोक्ष का मार्ग बतलाया है। कहाँ?' सम्यग्दर्शन के रहने से विवेकशक्ति सदा जागृत | सीता ने विवेक और धैर्य के साथ उत्तर दियारहती है, वह विपत्ति में पड़ने पर भी कभी न्याय को नहीं | 'मैं समझी थी कि आपका हृदय कोमल है पर क्या कहूँ छोड़ता। रामचन्द्र जी सीता को छुड़ाने के लिये लङ्का गये | आप मेरी जिस प्रकार चाहें शपथ लें।' थे। लङ्का के चारों ओर उनका कटक पड़ा था। हनुमान । रामचन्द्र जी ने कहा- 'अग्नि में कूदकर अपनी आदि ने रामचन्द्र जी को खबर दी कि रावण बहुरूपिणी| सच्चाई की परीक्षा दो।' । विद्या सिद्ध कर रहा है, यदि उसे विद्या सिद्ध हो गई तो बड़े भारी जलते हुए अग्निकुण्ड में सीता जी कूदने फिर वह अजेय हो जायेगा। आज्ञा दीजिये जिससे कि हम | को तैयार हुईं। रामचन्द्र जी लक्ष्मण जी से कहते हैं कि लोग उसकी विद्या की सिद्धि में विघ्न डालें। सीता जल न जाय। रामचन्द्र जी ने कहा- 'हम क्षत्रिय हैं, कोई धर्म लक्ष्मण जी ने कुछ रोषपूर्ण शब्दों में उत्तर दियाकरे और हम उसमें विघ्न डालें, यह हमारा कर्त्तव्य नहीं | 'यह आज्ञा देते समय नहीं सोचा? वह सती हैं, निर्दोष हैं, आज आप उनके अखण्ड शील की महिमा देखिये।' हनुमान ने कहा- 'सीता फिर दुर्लभ हो जायेंगी' उसी समय दो देव केवली की वन्दना से लौट रहे रामचन्द्र जी ने जोरदार शब्दों में उत्तर दिया- 'एक | थे, उनका ध्यान सीताजी का उपसर्ग दूर करने की ओर सीता नहीं सभी कुछ दुर्लभ हो जाय, पर मैं अन्याय करने | गया। सीता जी अग्निकुण्ड में कूद पड़ीं, कूदते ही सारा की आज्ञा नहीं दे सकता।' अग्निकुण्ड जलकुण्ड बन गया! लहलहाता कोमल कमल रामचन्द्र जी में इतना विवेक था, उसका कारण | सीताजी के लिए सिंहासन बन गया। पुष्पवृष्टि के साथ उनका विशुद्ध क्षायिक सम्यग्दर्शन था। 'जय सीते! जय सीते!' के नाद से आकाश गूंज उठा! सीता को तीर्थ-यात्रा के बहाने कृतान्तवक्र सेनापति | उपस्थित प्रजाजन के साथ राजा राम के भी हाथ स्वयं जुड़ जङ्गल में छोडने गया, उसका हृदय वैसा करना चाहता | गये, आँखों से आनन्द के आँस बरस उठे। गदगद कण्ठ था क्या? नहीं, वह स्वामी की आज्ञा की परतन्त्रता से गया | से एकाएक कह उठे- 'धर्म की सदा विजय होती है। था। उस समय कृतान्तवक्र को अपनी पराधीनता काफी शीलव्रत की महिमा अपार है।' 4 दिसम्बर 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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